October 4, 2024 4:57 am

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जिन्ना की तरह सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का किया था विरोध

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यह कहने के बाद कि कांग्रेस के घोषणापत्र पर ‘मुस्लिम लीग की छाप है’, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पलटवार करते हुए भाजपा के ‘वैचारिक पूर्वजों’ पर ‘अंग्रेजों और मुस्लिम लीग’ का समर्थन करने का आरोप लगाया।

उन्होंने सोमवार को एक एक्स पोस्ट में लिखा, “मोदी-शाह के वैचारिक पूर्वजों ने 1942 में महात्मा गांधी के “भारत छोड़ो आंदोलन” का विरोध किया था… हर कोई जानता है कि कैसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1940 के दशक में मुस्लिम लीग से गठबंधन कर बंगाल, सिंध और NWFP (North-West Frontier Province) में अपनी सरकारें बनाई थी।” सवाल उठता है कि क्या खड़गे के दावे ऐतिहासिक रूप से सटीक हैं? आइए जानते हैं:

1937 के प्रांतीय चुनाव

भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधानों के अधीन 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत ही शानदार रहा था। कुल 1585 प्रांतीय विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 711 जीतने में सफल रही थी।

11 प्रांतों (मद्रास, बिहार, उड़ीसा, केन्द्रीय प्रांत और यूनाइटेड प्रॉविंस) में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया तथा बंबई में (175 में से 86 सीटें) पूर्ण बहुमत से बस थोड़ा ही कम सीटों पर जीत हासिल की थी। इन सभी प्रांतों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ। कुछ समय बाद कांग्रेस ने NWFP व असम में भी सरकारें बनाईं।

शेष बचे 3 प्रांतों सिंध, पंजाब तथा बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन किया गया। सिंध में सिंध यूनाइटेड पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी, पंजाब में सिकंदर हयात खान की यूनियनिस्ट पार्टी ने पूर्ण बहुमत से जीत हासिल की थी। वहीं बंगाल में फ़ज़लुल हक़ की कृषक प्रजा पार्टी (केपीपी) ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई, बावजूद इसके कि कांग्रेस 54 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी।

ध्यान देने वाली बात ये भी है कि भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा करने वाली मुस्लिम लीग चुनावों में बेहद खराब प्रदर्शन किया था।

लीग अलग निर्वाचक मंडलों के तहत मुसलमानों को आवंटित 482 सीटों में से सिर्फ़ 106 सीटें जीत सकी थी। वह NWFP में एक भी सीट जीतने में नाकाम रही थी। पंजाब में 84 आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में से वह केवल दो सीटें ही जीत सकी और सिंध में 33 में से केवल 3 सीटें ही जीत सकी। ये सभी मुस्लिम-बहुल प्रांत थे।

हिंदू महासभा, जो 1930 के दशक में विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में चुनावी राजनीति में आई थी, भी हार गई।

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के बीच गठबंधन

कई विद्वानों ने लिखा है कि लीग और महासभा की राजनीति और विचारधारा एक दूसरे की परछाई थी। डॉ बी आर अंबेडकर ने लिखा: “भले ही यह अजीब लगे, लेकिन मिस्टर सावरकर और मिस्टर जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरुद्ध होने के बजाय इस पर पूरी तरह से सहमत हैं। दोनों न केवल सहमत हैं बल्कि जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं – एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र।” (Pakistan or the Partition of India, 1940).

यह वैचारिक मिलन जल्द ही जमीनी स्तर पर राजनीतिक गठबंधनों में बदलने वाला था, हालांकि उसकी उम्र बहुत कम रहने वाली थी।

सितंबर 1939 में वायसराय लिनलिथगो ने चुने हुए भारतीय प्रतिनिधियों से बिना कोई परामर्श किए जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा (भारत की ओर से) कर दी। वायसराय के इस निर्णय के खिलाफ कांग्रेस ने कड़ा विरोध दर्ज कराया।

कांग्रेस ने मांग रखी कि भारत युद्ध में ब्रिटेन की मदद तभी करेगा, जब यह वादा किया जाए कि युद्ध के बाद भारत को आजाद करने की घोषणा की जाएगी। लिनलिथगो ने इस मांग को मानने से इनकार कर दिया और अक्टूबर 1939 में कांग्रेस ने विरोध स्वरूप इस्तीफों की झड़ी लगा दी।

जहां-जहां कांग्रेस की सरकार थी, सभी ने इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस के इस्तीफे से प्रांतों में व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल मच गई। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों ने कांग्रेस के सत्ता छोड़ने के फैसले में एक राजनीतिक मौके को देखा और प्रांतीय सरकारों का हिस्सा बनने के लिए जल्दबाजी दिखाई। आखिरकार, उन्होंने दो (मुस्लिम-बहुल) प्रांतों – सिंध और NWFP में गठबंधन किया।

बंगाल में हिंदू महासभा ने मुस्लिम सांप्रदायिकतावादी फजलुल हक और उनकी पार्टी KPP का समर्थन किया। फजलुल हक पहले मुस्लिम लीग के नेता थे और विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। दिलचस्प है कि सुभाष चंद्र बोस की बनाई पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक ने भी तब हिंदू महासभा और केपीपी के गठबंधन का समर्थन किया।

महासभा में प्रमुख वैचारिक और राजनीतिक व्यक्ति सावरकर ने इन गठबंधनों को उचित ठहराया था। कानपुर में 1942 के हिंदू महासभा अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय संबोधन में सावरकर ने सिंध और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चलाने का गर्व से जिक्र किया था।

भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध

कांग्रेस और वायसराय के बीच वार्ता टूटने के बाद महात्मा गांधी ने 8 अगस्त, 1942 को बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान से भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की। 9 अगस्त तक कांग्रेस नेतृत्व के अधिकांश लोगों को ब्रिटिश सरकार के आदेश पर गिरफ्तार कर लिया गया। इसके कारण राष्ट्रवादी विद्रोह हुआ क्योंकि जनता हड़ताल, सार्वजनिक प्रदर्शनों और जुलूसों के साथ सड़कों पर उतर आई।

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा आंदोलन में शामिल नहीं हुए। वे सरकार चलाते रहे। यहां तक कि भारतीयों को युद्ध में झोंकने के ब्रिटिश प्रयासों के लिए वायसराय को समर्थन भी दिया। यह एक राजनीतिक निर्णय था, जिसका उद्देश्य सत्ता बचाए रखना था।

सावरकर ने एक पत्र में पूरे देश में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया था कि जो लोग “नगर पालिकाओं, स्थानीय निकायों, विधायिकाओं के सदस्य हैं या सेना में सेवा कर रहे हैं… वे अपने पदों पर बने रहें” और किसी भी कीमत पर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल न हों।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो तब बंगाल सरकार का हिस्सा थे, उन्होंने तो बकायदा भारत छोड़ो आंदोलन को “कुचलने के लिए” अंग्रेजों को अपने समर्थन का वचन पत्र दिया था।

उन्होंने लिखा था: “कोई भी व्यक्ति, जो युद्ध के दौरान, आंतरिक गड़बड़ी या असुरक्षा के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर भावना को भड़काने की योजना बनाता है, उसका किसी भी सरकार द्वारा विरोध किया जाना चाहिए… भारतीयों को ब्रिटेन के लिए नहीं, ब्रिटेन को प्राप्त होने वाले किसी भी लाभ के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश पर भरोसा करना होगा”। (मुखर्जी इन लीव्स फ्रॉम ए डायरी, 1993 में मरणोपरांत प्रकाशित)।

जिन्ना भी कुछ इसी प्रकार की राय रखते थे। जहां कांग्रेस के नेता जेलों में थे, वहीं जिन्ना ने मुसलमानों को हिंदुओं के दबदबे से सावधान करते हुए पाकिस्तान के लिए अपने आंदोलन को और तेज कर दिया था। उन्होंने इस जन-आंदोलन को “भारत में हिन्दू राज की स्थापना के लिए कांग्रेस का खुला विद्रोह” करार दिया था। (जैसा कि 2011 में समाचार पत्र “द नेशन” में प्रकाशित “द कायद-ए-आजम एंड क्विट इंडिया मूवमेंट” में उद्धृत किया गया है।

जिन्ना का निर्णय उनके लिए लाभकारी रहा। सुमित सरकार ने मॉर्डन इंडिया: 1885-1947 (1983) में लिखा है: “मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के दमन का पूरा लाभ उठाया, और खुद का तेजी से विकास किया। वास्तव में युद्ध के अंतिम वर्षों में सबसे खास राजनीतिक बदलाव देखने को मिले थे। 1943 तक, असम, सिंध, बंगाल और एनडब्ल्यूएफपी में लीग की सरकारें स्थापित हो गईं…।”

Khabar 30 Din
Author: Khabar 30 Din

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