जातिगत जनगणना की घोषणा सरकार की तरफ़ से कर दी गई है. इसके पीछे की मंशा इसी से साफ़ हो जाती है कि सरकार या भारतीय जनता पार्टी के समर्थक इसकी तारीफ़ यह कहकर कर रहे हैं कि भाजपा ने विपक्ष से उसका सबसे बड़ा मुद्दा छीन लिया है. ‘कांग्रेस या राहुल गांधी के पैरों तले से भाजपा ने दरी खींच ली,’ : एक अख़बार ने इस तरह की सुर्ख़ी लगाई. वहीं, विपक्ष ने अपनी जीत का दावा किया. कहा, जो भाजपा जातिगत जनगणना की मांग को हिंदू समाज को बांटने की साज़िश कहती आ रही थी, वह अब ख़ुद जातिगत जनगणना करने की घोषणा के लिए मजबूर कर दी गई है.
कई लोगों ने गौर किया कि यह घोषणा पहलगाम में सांप्रदायिक आतंकवादी हिंसा की उत्तेजना के बीच की गई है. भारत भर में इस हिंसा के बाद मुसलमान विरोधी घृणा भड़क उठी और सरकार की जगह हिंदू कश्मीरियों और मुसलमानों से सवाल किया जाने लगा. उन पर हमले हुए. लेकिन धीरे-धीरे लोग यह भी पूछने लगे कि आख़िर 5 साल तक कश्मीर को अपने पूरे क़ब्ज़े में रखने के बाद भी भाजपा सरकार क्यों सैलानियों की हिफ़ाज़त नहीं कर पाई. यह सवाल मारे गए लोगों के परिजन पूछ रहे हैं और बड़े मीडिया की तमाम कोशिशों के बावजूद आम हिंदू भी यह सवाल पूछने लगा है. इस सवाल को शांत करने के लिए ही सरकार ने जातिगत जनगणना का ऐलान किया है. इस तरह उसने अख़बारों और टीवी चैनलों को एक विषय दिया है ताकि वे देश का ध्यान इस सवाल से हटा सकें.
दोनों ही मामलों में इसे भाजपा सरकार की जानी पहचानी चतुराई के तौर पर देखा जा रहा है. लोग कह रहे हैं कि विपक्ष को निष्प्रभावी करने और कश्मीर में नागरिकों को सुरक्षित रख पाने में अपनी विफलता की आलोचना से बचने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है.
अब विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया, कहकर भाजपा समर्थक मुदित हो रहे हैं.
इस घोषणा से भाजपा के वे सारे लोग हैरान रह गए हैं जिन्होंने पहलगाम के हमले के ठीक बाद यह पोस्टर जारी और प्रसारित किया था: ‘धर्म पूछा, जाति नहीं. ‘ इस एक पोस्टर से भाजपा की क्रूर असंवेदनशीलता प्रकट होती थी. इस हिंसा के बीच भी वह अपनी जातिवादी राजनीति नहीं भूली थी. इस हिंसा का लाभ उठाकर वह हिंदुओं को बतला रही थी कि उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण सच्चाई उनका धर्म है, उनकी जाति नहीं क्योंकि उनके दुश्मन उन पर धर्म पूछकर हमला करते हैं, जाति पूछकर नहीं. लेकिन अब उन्हीं की सरकार भारतीयों से उनकी जाति पूछने जा रही है.
जिस प्रधानमंत्री ने अभी साल भर पहले ही जातिगत जनगणना की मांग करने वालों को ‘अर्बन नक्सल’ कहा था, वही अब जातिगत जनगणना की बात कर रहा है. जो लोग जातिगत जनगणना की मांग करने वालों को रावण कह रहे थे,अब वे उसके पक्ष में तर्क खोज रहे हैं.
‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’, जैसे नारों का क्या होगा? भाजपा इन नारों के ज़रिये यह कहने की कोशिश करती रही है कि हिंदू समाज की पहली सच्चाई जाति नहीं है और हमें जाति की पहचान पर ज़ोर नहीं देना चाहिए. अभी हाल ही ‘फुले’ फ़िल्म में जातिसूचक शब्दों और दृश्यों को हटा देने का आदेश सेंसर बोर्ड ने दिया. यही नहीं, पिछले 10 सालों से स्कूली किताबों से जाति से जुड़े प्रसंग हटाए जा रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से जाति से संबद्ध प्रसंगों को हटाया जा रहा है.
यह दिलचस्प है कि जिस दिन जातिगत जनगणना की घोषणा हुई, उसी दिन टेलीग्राफ अख़बार ने खबर छापी कि एनसीईआरटी ने अपनी किताब में जाति के बारे में कहा है कि यह कोई स्थिर सामाजिक इकाई नहीं थी और लोगों को एक पेशे से दूसरे में आने जाने की इजाज़त थी. वह कोई दमनकारी व्यवस्था नहीं थी और समाज को स्थिरता प्रदान करती थी. वह तो अंग्रेज थे जिन्होंने इसे बदनाम किया.
जाति को लेकर भाजपा या उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दोमुंहापन सबके सामने साफ़ है. वे जानते हैं कि हिंदू अपनी जाति कभी नहीं भूलने वाले और अपने जीवन के सारे महत्त्वपूर्ण फ़ैसले वे जाति के संदर्भ में ही करते हैं. आरएसएस जाति उन्मूलन का अभियान नहीं चला सकती. उसमें न तो आंबेडकर और न गांधी जैसा साहस है कि वह अपने समाज को बदलने के लिए प्रेरित कर सकें. ध्यान रहे कि अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ उनके अभियान के कारण गांधी पर जानलेवा हमले हुए.
हम यह भी जानते हैं कि हिंदू एकता की बात करनेवाली भाजपा अपने सारे राजनीतिक निर्णय जातिगत समीकरणों के भीतर ही करती है. 2013-14 में नरेंद्र मोदी को हिंदू नायक कहने के साथ पिछड़ी जाति के नेता के रूप में पेश किया गया. मोदी ने बार-बार अपनी जातीय पृष्ठभूमि का हवाला देकर ख़ुद को दबा-कुचला दिखलाने की और सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है.
पिछड़ों और दलितों में प्रभुत्वशाली जातियों से इतर जातियों का गठजोड़ तैयार करके भाजपा ने सामाजिक न्यायवाली जाति आधारित राजनीति का जवाब हिंदुत्ववादी जातिवादी राजनीति से दिया है. यानी भाजपा जाति का सच जानती है और उसका लाभ भी उठाती रही है. लेकिन हिंदुत्ववादी विचारधारा उसे अवधारणात्मक स्तर पर स्वीकार नहीं कर सकती. जाति की अवधारणा को वह एक उपनिवेशवादी षड्यंत्र ठहराती है.
भाजपा जाति का लाभ तो उठाना तो चाहती है लेकिन उसे सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने पर उसका समरस हिंदूपन का भ्रमलोक छिन्न भिन्न हो जाता है. आरएसएस दावा करता है कि उसकी छत्रछाया में सब हिंदू हैं, कोई जाति नहीं. लेकिन आपको भंवर मेघवंशी की किताब पढ़कर आरएसएस का यह झूठ भी समझ में आ जाएगा.
बहरहाल! बाबा साहब, गांधी और उनके पहले और बाद के अनेक आंदोलनों के कारण अब जाति के यथार्थ से इनकार करना संभव नहीं रह गया है. भाजपा यह ख़तरा उठा नहीं सकती कि वह उन जाति समूहों की नाराज़गी मोल ले जो अब इन आंदोलनों के कारण जनतांत्रिक राजनीति में मुखर हो उठे हैं और वोट के ज़रिये उसपर दावा पेश कर रहे है.
जो भाजपा के नहीं हैं, उनमें से कई लोग भली मंशा से पूछते हैं क्या हमारी पहचान आख़िरकार जाति से होगी? वे कहते हैं कि जातिगत जनगणना से हमारी पहचान आख़िरी तौर पर जाति के दायरे में जड़ हो जाएगी. लेकिन हम जानते हैं कि जातिगत जनगणना से इस प्रश्न का कोई लेना देना नहीं. जीवन के प्रत्येक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में हमारे फ़ैसले जाति से जुड़े हैं. हम चाहें या न चाहें. उसके लिए जातिगत जनगणना को तो दोष नहीं दिया जा सकता. हिंदुओं को बांटने के लिए जातिगत जनगणना की ज़रूरत नहीं. वे पहले से बंटे हुए हैं. उनमें कोई अर्थपूर्ण साझेदारी नहीं है. इसलिए इस बंटे हुए समाज को हिंदू बनाने का एक ही उपाय है: एक सामान्य शत्रु मुसलमान को सामने रखना जिसके ख़िलाफ़ युद्ध में वे सब मिलकर हिंदू बन जाते हैं.
फिर भी जातिगत जनगणना से बिलकुल स्वतंत्र यह प्रश्न है कि क्या जाति उन्मूलन का बाबा साहब का सपना आख़िरी तौर पर स्थगित कर दिया गया है?
इस सवाल का जातिगत जनगणना से रिश्ता नहीं लेकिन जनतंत्र के लिए इस सवाल की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. उस जातिवादी व्यवस्था को ख़त्म करना ज़रूरी है जिसने समाज के बहुलांश को व्यक्ति बनने ही नहीं दिया. वह बहुलांश दलित और अति पिछड़े समुदायों का है. उनके व्यक्ति बनने के रास्ते में जातिगत जनगणना रुकावट नहीं थी. फिर भी भारतीय जनतंत्र का एक बड़ा प्रलोभन तो यह है कि जाति को कभी ख़त्म न होने दिया जाए क्योंकि वह राजनीतिक गोलबंदी और लेन देन की सबसे आसान इकाई है. वह इकाई जिसके इर्द गिर्द जनमत आसानी से इकट्ठा किया जा सके. फिर जनमत कुछ और नहीं जातीय जोड़-तोड़ का दूसरा नाम है.
लेकिन अगर हम अब मनुष्य बनने की महत्त्वाकांक्षा को हमेशा के लिए स्थगित कर देते हैं तो यह समाज और जनतंत्र दोनों के लिए शुभ नहीं है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
