October 18, 2024 2:01 pm

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छत्तीसगढ़ नसबंदी त्रासदी के दस साल: शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल अब भी बरक़रार

बिलासपुर: क़रीब दस साल पहले यानी नवंबर 2014 में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर ज़िले में एक नसबंदी शिविर लगा था, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण का यह सरकारी अभियान त्रासदी में बदल गया. नसबंदी के बाद 13 महिलाओं की मौत हो गई और कई अन्य को बिलासपुर के अस्पतालों में भर्ती कराया गया. लंबे इलाज के बाद महिलाएं घर लौट सकीं.

यह मामला अखबारों की सुर्खियां बना और सुप्रीम कोर्ट तक गया. सरकार ने बड़े ऐलान किए. इन घोषणाओं में प्रभावित परिवारों को निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं और उनके बच्चों को निशुल्क शिक्षा देना भी शामिल था. त्रासदी के दस साल बाद प्रभावित लोगों के हालात कैसे हैं? शिक्षा और स्वास्थ्य के वायदों का क्या हुआ?

इन वायदों की पड़ताल से पहले इस ऑपरेशन से जुड़े एक महत्वपूर्ण मसले पर विचार करते हैं.

नसबंदी में अंतर्निहित लिंगभेद

आमतौर पर ग्रामीण भारत में ऑपरेशन के लिए सर्दियों को चुना जाता है. स्त्रियों की नसबंदी भी अमूमन सर्दियों में होती है, ताकि स्त्रियां बेहतर मौसम में स्वास्थ्य-लाभ कर सकें और बच्चे और परिवार को कम तकलीफ़ हो.

नवंबर 2014 की त्रासदी में जान गंवाने वाली महिलाएं ऐसे कमजोर परिवारों से थीं, जहां अधिक संतानों के जन्म से आर्थिक समस्याएं आती हैं. लेकिन इससे उबरने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं की है, भले इसके लिए उन्हें जान का ज़ोखिम क्यों न लेना पड़े.

ऐसी ही कहानी बिलासपुर के भरारी ग्राम की निवासी रमा वस्त्रकार की है, जिनकी हालत ऑपरेशन के बाद बिगड़ गई थी.  बाइस दिनों तक बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में भर्ती रहने के बाद वे बच सकी थीं.

हालांकि, कुछ महिलाएं इतनी भाग्यशाली नहीं थीं. उस त्रासदी में अपनी पत्नी फूलबाई को खो देने वाले अमसेना निवासी रूपचंद कहते हैं, ‘जब घटना हुई थी तो बहुत लोग आए थे. मीडिया से बड़ा-बड़ा कैमरा लेकर. जिनको हिंदी नहीं आती थी, उनके साथ हिंदी जानने वाले लोग रहते थे. विदेश से भी लोग आए. कुछ साल तो सबका बहुत आना-जाना रहता था, अभी कुछ समय से कोई नहीं आया.’

सकरी स्थित 2014 नसबंदी ऑपरेशन स्थल.

अमसेना की ही पचपन साल की हरबाई केंवट ने सालों पहले अपने मायके पाली में नसबंदी करवाई थी. हरबाई कहतीं हैं, ‘भाभी-भतीजी बाज़ार घूमने जा रहे, तो मैं बोली मैं भी जाऊंगी और चली गई. फिर वो लोग बोले ऑपरेशन कराने आए हैं तो फिर हमारा भी ऑपरेशन हो गया.’

वह आगे बताती हैं कि उनके पांच बच्चे हैं, तीन बेटे और दो बेटी. छोटी बेटी बस कुछ महीने की थी जब नसबंदी हुई थी.

आपातकाल के बाद भारत में महिला नसबंदी इतनी ही सामान्य है, जितना कि भाभी-भतीजी के साथ बाज़ार घूमने गई हरबाई केंवट का नसबंदी करवाकर घर लौटना.

फर्टीलिटी एंड फैमिलियल पावर रिलेशंस: प्रोक्रियेशन इन साउथ इंडिया (2001)’ की लेखक मिन्ना सावला तसदीक़ करतीं हैं, ‘इस तथ्य के बावजूद कि महिला नसबंदी में अधिक चिकित्सीय ज़ोखिम हैं और ऑपरेशन पुरुष नसबंदी की तुलना में अधिक जटिल है, इस ऑपरेशन के लिए टारगेट समूह पुरुषों से महिलाओं की तरफ़ मोड़ा गया.’

अनसेटलिंग मेमोरीज़ नेरैटिव्स ऑफ इंडियाज़ इमरजेंसी (2003) की लेखक एम्मा टार्लो ने नसबंदी पर अपने अध्ययन में आपातकाल की भी चर्चा की है. उनके अनुसार नसबंदी शब्द लोगों के दिमाग़ में इस हद तक घर कर गया कि उत्तरदाता आपातकाल के समय को ‘नसबंदी का वक़्त’ कहकर संबोधित करते हैं. एम्मा टार्लो कहती हैं कि राष्ट्रीय प्राथमिकता वाला परिवार नियोजन अभियान राष्ट्रीय शर्मिंदगी में तब्दील हो गया था.

इंडियाज क्वेस्ट फॉर पॉपुलेशन स्टेबलाइजेशन (2010)’ के लेखक आशीष बोस  ने भारत की जनसंख्या नीति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, ‘1977 के चुनाव के बाद नई सरकार द्वारा जनता का मिजाज़ भांपते हुए परिवार नियोजन कार्यक्रम का नाम बदल कर ‘परिवार कल्याण’ किया गया. ‘कल्याण’ का विरोध कौन करेगा?’

परिणामस्वरूप पुरुष नसबंदी की जगह महिला नसबंदी ने ली, जो इस ऑपरेशन में गहरे लिंग-भेद का सूचक है.

साल 2018 में प्रकाशित लेख गेट्स और मोदी युग में रिप्रोडक्टिव जस्टिस  में कल्पना विल्सन इस त्रासदी को ‘लैंगिक हिंसा’ घोषित करतीं हैं. विल्सन कहती हैं, ‘राज्य और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जनसंख्या नियंत्रण कानूनों और प्रथाओं का उपयोग ग़रीब, आदिवासी और दलित महिलाओं के खिलाफ़ लैंगिक हिंसा के साधन के रूप में करती हैं.’

गौरतलब है कि ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ या ‘हम दो हमारे दो’ जैसे विज्ञापन ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने भारत में परिवार नियोजन नीति को आकार दिया है. लेकिन नसबंदी का भार औरतों पर इतना बढ़ता चलता गया कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2019-2021 की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण महिला नसबंदी का अनुपात 38.7 प्रतिशत तथा शहरी महिला नसबंदी का प्रतिशत 36.3 है.

इसकी तुलना में ग्रामीण पुरुष नसबंदी 0.3 प्रतिशत तथा शहरी पुरुष नसबंदी 0.2 प्रतिशत है. कुल मिलाकर भारत में महिला नसबंदी का अनुपात 37.9 प्रतिशत जबकि पुरुष नसबंदी का अनुपात 0.3 प्रतिशत है.

मुआवजे का फरेब और त्रासद जीवन

छत्तीसगढ़ के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, ‘8 नवंबर 2014 को बिलासपुर जिले के सकरी गांव में और 10 नवंबर 2014 को बिलासपुर जिले के गौरेला, पेंड्रा और मरवाही में नसबंदी शिविर आयोजित किए गए थे. कुल 137 ऑपरेशन किए गए. कई महिलाओं ने उल्टी, दर्द और सांस लेने में कठिनाई की शिकायत की, जिनमें से 13 की मृत्यु हो गई. आर्थिक मुआवजे के तौर पर मृतकों के परिवारों को 4 लाख रुपये और चिकित्सा संस्थानों से छुट्टी पाने वालों को 50,000 रुपये दिए हैं. मृतकों के बच्चों को राज्य सरकार ने गोद लिया है और उन्हें 18 वर्ष की आयु तक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की जिम्मेदारी ली है. राज्य सरकार ने अनाथ हुए बच्चों के लिए 3 लाख रुपये की राशि भी सावधि जमा में डाल दी है. बच्चे 18 वर्ष की आयु हो जाने पर इस राशि के हकदार होंगे.’ (देविका बिश्वास बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, बिंदु 52 एवं 54)

हालांकि, निशुल्क शिक्षा का दावा खोखला साबित हुआ है. इस त्रासदी से प्रभावित परिवारों के कई बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई है.

नसबंदी त्रासदी की शिकार बनी गनियारी गांव की शिवकुमारी केंवट अपने पीछे तीन संतान- मनीष, अनीश और अनीशा- को छोड़ गई थीं. जब उनकी मौत हुई, अनीशा एक महीने की थी, अनीश तीन वर्ष और मनीष साढ़े पांच वर्ष का. अब बच्चे बड़े हो गए हैं,  लेकिन अनीश और अनीशा स्कूल नहीं जा रहे हैं. सबसे बड़े मनीष ने नौवीं कक्षा में फेल होने के बाद स्कूल छोड़ दिया है.

राज्य ने मृतक स्त्रियों की संतानों को गोद लेने का दावा किया था, पर शिवकुमारी के बच्चों के साथ ऐसा नहीं हुआ. अनीश और अनीशा ज़्यादातर ननिहाल में ही रहते हैं, और मनीष पिता के साथ.

बच्चों के नाना सिदूलाल केंवट बेटी शिवकुमारी को याद कर भावुक हो जाते हैं. सिदूलाल बच्चों की पढ़ाई न होते देखकर चिंतित रहते हैं.

नसबंदी त्रासदी में जान गंवाने वाली 13 महिलाओं की आयु 22 वर्ष से 30 वर्ष के बीच थी. इन सभी का सबसे छोटा बच्चा एक साल से भी कम उम्र का था. कई बच्चे एकदम नवजात थे. वे बच्चे आज दस साल के हो गए हैं. ज़्यादातर परिवारों में पिता ने दूसरी शादी कर ली है. कहीं यह स्थिति है कि एक बच्चा पिता और दूसरी मां के साथ, और बाकी बच्चे दादी के साथ रह रहे हैं.

कुछ परिवारों में मां की मृत्यु के कुछ साल बाद पिता की भी मौत हो गई.

ऐसा एक परिवार लोखंडी गांव की दुलौरिन बाई पटेल का है. उनकी मृत्यु के चार साल बाद सड़क हादसे में पति दिनेश की भी मृत्यु हो गई. उनके दो बच्चे- सूर्यकांत (14) और शशिकांत (10) अपने दादा-दादी के साथ रहते हैं और गांव के सरकारी विद्यालय में पढ़ रहे हैं. दादा-दादी बुज़ुर्ग हैं. घर में कमाने वाले सिर्फ़ सूर्यकांत के चाचा हैं, जो महाराष्ट्र के पुणे में मजदूरी करते हैं.

दिनेश के विषय में पूछने पर उनकी मां लछन बाई पटेल भावुक हो दीवार पर लगे पर्दे के पीछे छुपी एक तस्वीर की ओर इशारा करती हैं, ‘(बेटे का) चेहरा दिख जाता था तो पर्दा लगा दिया.’

पर्दा, जिसके पीछे दिनेश और दुलौरिन की तस्वीरें है.

लछन बाई कहती हैं, ‘जब बाबू (शशिकांत) छोटा था तो सरकार घर से भी लोग आते थे, दूध लेकर, खिलौना लेकर. कुछ साल तक बहुत आए देखने के लिए. इधर बीच से अभी कोई नहीं आया है.’

लगभग यही स्थिति दिघोरा गांव के धन्नालाल यादव के परिवार की है. वे बरसों तक अपनी पत्नी दीप्ति की स्मृति लिए जीते रहे. साल 2017-18 में इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘दीप्ति का जीवन मेरा जीवन था. मेरा जीवन उसका जीवन. जब वो गई, तो मैंने सोचा मैं भी ख़त्म हो जाता हूं… मैंने सोचा कि मुझे खुद को मार लेना चाहिए… मैं रुक गया बस बच्चों के लिए.’

2022 में धन्नालाल यादव की मृत्यु हो गई. धन्ना की मां गणेशिया बाई कहतीं हैं, ‘दो बेटा एक के बाद एक चल गइस. (दो बेटे एक के एक बाद चल बसे)’.

धन्नालाल से पहले उनके एक भाई गुजर गए थे.

दीप्ति और धन्ना अपने पीछे तीन संतान छोड़ गए हैं. मंझला बेटा इंद्र प्रसाद नवीं में पढ़ता है. सबसे बड़ा बीटा नीलकमल बारहवीं में फेल हो गया और बेटी तुलेश्वरी पांचवी में पढ़ती है. नीलकमल अब प्राइवेट नौकरी करता है, जहां पहले धन्नालाल यादव काम किया करते थे.

धन्नालाल यादव. दीप्ति की कोई तस्वीर अब इस घर में नहीं है.

त्रासदी के संस्करण  

बिलासपुर की इस त्रासदी को मीडिया के अलावा कई एनजीओ ने भी दर्ज किया था. घटना के तुरंत बाद इन ग़ैर सरकारी संस्थाओं के सम्मिलित प्रयासों द्वारा 27 नवंबर 2014 को प्रकाशित रिपोर्ट कैंप ऑफ रॉंग्स, दी मॉर्निंग आफ्टरवर्ड्ज़  ने नीतिगत स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक कई चरणों में सिफ़ारिश दी थीं जिसकी शुरुआत इससे होती है, ‘महिला की निजता, गरिमा, शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए. प्रजनन और चयन का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक आयाम है जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत समझा जाता है.’

वहीं साल 2020 में एक एनजीओं द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट जस्टिस डिनाइड स्टेरीलाइजेशन डेथ्स इन बिलासपुर रूट कॉज एनालिसिस एंड एससेसमेंट ऑफ एक्शन टेकन बाय द स्टेट  त्रासदी के बाद राज्य सरकार के रवैये पर प्रकाश डालती है: ‘छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ लोगों की सेवाएं समाप्त करके मामले को रफा-दफा करने में काफी चतुराई दिखाई, जबकि उच्च स्तर के अधिकांश अधिकारियों को बचा लिया गया.’

यह रिपोर्ट इस त्रासदी को अच्छे से बयान कर देती है.

(प्रीति कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘राज्य, जनसंख्या नियंत्रण और नसबंदी’ पर पीएचडी कर रही हैं. उपरोक्त रिपोर्ट इस वर्ष मई-जून के बीच हुए ज़मीनी शोध पर आधारित है.)

THE WIRE

Khabar 30 Din
Author: Khabar 30 Din

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