- दुर्ग DFO परदेशी पर लगातार अभद्रता के आरोप, प्रशासन की चुप्पी पर उठे सवाल
- रंग, रूप, लिंग और पद के आधार पर भेदभाव क्यों?
दुर्ग वन मंडल के डीएफओ परदेशी के व्यवहार को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। उन पर लगातार कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार और भेदभावपूर्ण भाषा का इस्तेमाल करने के आरोप लग रहे हैं। ताजा घटनाओं में उन्होंने एक महिला कर्मचारी के रंग और शरीर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी की, वहीं एक वरिष्ठ कर्मचारी को उनकी उम्र और पद की परवाह किए बिना सार्वजनिक रूप से गालियां दीं। यह सिर्फ बुरा व्यवहार नहीं, बल्कि साफ तौर पर भेदभाव का मामला भी है।
CCF की भूमिका संदिग्ध, क्या संरक्षण मिल रहा है?
इस पूरे मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि डीएफओ परदेशी के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज होने के बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। सूत्रों के मुताबिक, CCF मैच्चियों खुलकर उन्हें बचाने में लगे हुए हैं। आरटीआई से सामने आया है कि CCF ने परदेशी की गलतियों को छिपाने के लिए कागजी हेरफेर भी किया। यह वन विभाग की निष्पक्षता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। क्या एक अधिकारी को इसलिए बचाया जा रहा है क्योंकि वह ऊँचे पद पर है और विभागीय नेटवर्क का हिस्सा है? अगर ऐसा है, तो यह पूरे प्रशासन की साख पर बड़ा धब्बा है।
प्रशासन की चुप्पी – आखिर क्यों?
डीएफओ परदेशी के खिलाफ लगातार शिकायतें की जा रही हैं, लेकिन शासन-प्रशासन अब तक चुप्पी साधे बैठा है। सवाल यह है कि क्या छोटे कर्मचारियों को न्याय दिलाने में सरकार की कोई रुचि नहीं है? क्या अधिकारी किसी बड़े हादसे के इंतजार में हैं? यह प्रशासन की उस लचर व्यवस्था को दर्शाता है, जहां शिकायतों पर सिर्फ कागजी कार्रवाई होती है, लेकिन वास्तविकता में कोई असर नहीं दिखता।
सरकार कब लेगी संज्ञान?
इस पूरे मामले में सरकार और वन विभाग को जल्द से जल्द दखल देना चाहिए। यदि समय रहते डीएफओ परदेशी पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई, तो यह साबित हो जाएगा कि सरकार सिर्फ उच्च पदस्थ अधिकारियों की रक्षा के लिए काम कर रही है, न कि कर्मचारियों के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए। कर्मचारियों को अपनी आवाज उठाने का हक है, और अगर उनकी शिकायतों को अनसुना किया जाता है, तो यह न्याय की मूल भावना का अपमान होगा।
क्या कोई बड़ा आंदोलन होगा?
डीएफओ परदेशी के खिलाफ कर्मचारियों में भारी आक्रोश है। यदि प्रशासन ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया, तो हो सकता है कि कर्मचारी किसी बड़े आंदोलन के लिए मजबूर हो जाएं। यह केवल वन विभाग का नहीं, बल्कि पूरे सरकारी तंत्र का परीक्षण है—क्या वे अपने कर्मचारियों को न्याय दिलाने में सक्षम हैं या नहीं?
