बीते एक दशक में भारतीय राजनीति में हिंदुत्व और उसके इर्द-गिर्द के मुद्दे की राजनीति को प्रमुखता मिली है.
ऐसे में पिछले एक दशक के दौरान भारतीय मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी कहां है, इस सवाल पर चर्चा होती रही है.
महाराष्ट्र चुनाव को देखते हुए वहां की राजनीति में कहां हैं मुसलमान? इस सवाल पर भी खूब चर्चा हो रही हैं.
देश के कुछ अन्य हिस्सों की तरह महाराष्ट्र में भी धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशों के उदाहरण मिले हैं.
तल्ख़ बयानबाज़ियां हो रही हैं और भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं, मार्च निकाले जा रहे हैं. कुछ शहरों में तनाव और सांप्रदायिक दंगे जैसी स्थिति भी दिखी है.
महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ के नारे के साथ चुनाव प्रचार करते नज़र आए.
हालांकि, महाराष्ट्र में बीजेपी और खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस नारे की जगह दूसरे नारे ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ को भुनाने की कोशिश की है.
क्या मुसलमानों को मिला राजनीतिक प्रतिनिधित्व?
भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण के प्रयास करने की रणनीति नई बात नहीं है.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ महाराष्ट्र में मुसलमानों की आबादी 11.5 फीसदी थी. इस हिसाब से राज्य में मुसलमानों की आबादी करीब 1.30 करोड़ होगी. लेकिन आबादी की तुलना में मुसलमानों को जन प्रतिनिधित्व मिलता नहीं दिखता है.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान महायुति और महाविकास अघाड़ी, दोनों गठबंधन ने किसी भी एक सीट से मुस्लिम उम्मीदवार को नहीं उतारा.
जबकि, राज्य विधानसभा में 288 में से 10 मुस्लिम विधायक हैं. यानी 3.47 फीसदी.
इतिहास में यह पहली बार हुआ कि महाराष्ट्र की विधानपरिषद में एक भी मुस्लिम नहीं था.
लेकिन राज्य में चुनाव की घोषणा से कुछ घंटे पहले इदरीस नायकवाड़ी को राज्यपाल द्वारा नामांकित विधान परिषद सदस्यों के बीच जगह मिल गई.
आर्थिक स्थिति भी एक पहलू
मुस्लिम जन प्रतिनिधियों के कम होने से क्या असर हो सकता है, इसकी एक झलक ‘संपर्क’ संस्था के एक सर्वे में देखा जा सकती है.
इस सर्वे के मुताबिक़, पिछले पांच साल में विधानसभा में 5921 सवाल पूछे गए. केवल 9 प्रश्न अल्पसंख्यकों और उनके मुद्दों के बारे में थे.
छत्रपति संभाजीनगर के ठीक मध्य में मुस्लिम बहुल बस्ती किराडपुरा है. इस बस्ती से गुजरते समय वहां रहने वाले लोगों की आर्थिक हैसियत का अंदाज़ा होता है.
एक मैदान में कुछ स्कूली बच्चे खुली जगह पर पतंग उड़ा रहे थे. इसी मैदान के पास शेख फहीमुद्दीन की झोपड़ी है. वे सारा दिन वहीं बैठकर पतंगें बनाते हैं.
वे बताते हैं, “पहले हमारे दादा ने किया, फिर अब्बा ने किया. अब हम कर रहे हैं. हमारी तीसरी चौथी पीढ़ी है. खानदानी काम है हमारा.”
“एक छोटे से घर में पूरा परिवार पतंग बनाता है. पिछली पीढ़ियों ने जो किया, वही अगली पीढ़ियाँ करेंगी.”
आमदनी का है सवाल
लेकिन सवाल ये है कि इस काम से उनकी आमदनी क्या है? क्या गुजारे लायक आमदनी हो जाती है?
वह कहते हैं, “ये पतंग हम थोक में दे देते हैं. हज़ार पतंग के पीछे पांच सौ रुपये बच जाते हैं. एक हजार पतंग बनाने में कम से कम दो दिन लगते हैं.”
यानी ढाई सौ रुपये प्रतिदिन और ये आमदनी भी साल के केवल दो महीनों के दौरान होती हैं. संक्रांति के महीने में वे व्यस्त रहते हैं.
उनकी बनाई पतंगें महाराष्ट्र के साथ साथ गुजरात तक जाती हैं.
फहीमुद्दीन को लगता है कि उनके दोनों बेटों को कुछ अलग करना चाहिए. एक बेटा स्कूल में है और दूसरे ने अभी दसवीं कक्षा पास की है.
फहीमुद्दीन कहते हैं, “हम दूसरा काम करने को कहते हैं. पर अभी वे कुछ करना नहीं चाहते. नहीं तो फिर यही काम उनको सिखाएंगे.”
फहीमुद्दीन की कहानी अधिकांश मुस्लिमों की कहानी है. पारंपरिक व्यवसायों में फंसे इन लोगों के पास नए अवसर नहीं पहुंच रहे हैं. शिक्षा की कमी के चलते वे नए तरह का काम भी नहीं कर पा रहे हैं.
मनमोहन सिंह सरकार के दौरान गठित सच्चर समिति की रिपोर्ट से भी मुस्लिम समुदाय की यही मुश्किलें सामने आयी थीं. इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने डॉ. महमदुर्रहमान समिति का गठन किया था.
महमदुर्रहमान समिति की रिपोर्ट
किराडपुरा की डॉ. फ़िरदौस फ़ातिमा से हमने बात की. वे पहले कांग्रेस में थीं और अब ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम में हैं.
यहां से पार्षद भी रहीं. उन्होंने ही सबसे पहले अपनी बस्ती में एक स्कूल की मांग की और अब यह शुरू हो गया है. उन्होंने ख़ुद इसी साल उर्दू साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है.
वह बताती हैं, “मुसलमानों में बहुत कम छात्र स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर तक पहुंच पाते हैं. अब तो जो सरकारी फ़ेलोशिप या छात्रवृत्तियां मिलती थीं, वे भी बंद हो गई हैं. ऐसा लगने लगा है कि अगर उन्हें पढ़ने का मौका मिल गया तो वे और सवाल पूछेंगे.”
किराडपुरा के एजाज अहमद 30 साल के हैं. उन्होंने मास्टर्स की डिग्री ली है,पहले उन्होंने कॉल सेंटर में भी काम किया है. लेकिन काम बंद होने के बाद वह परिवार के कपड़े की दुकान पर काम करने लगे हैं.
साल 2014 में, रहमान समिति की सिफारिश के अनुसार, महाराष्ट्र में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में पांच प्रतिशत आरक्षण मिला था, लेकिन मुंबई उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी.
बाद में पढ़ाई के लिए कोटा की अनुमति दे दी. हालाँकि, वह कोटा लागू नहीं किया गया था. लेकिन सवाल यही है कि इन मुद्दों को किनारे रखते हुए महाराष्ट्र की राजनीति धार्मिक क्यों हो गई है?
धार्मिक उत्पीड़न की घटनाएँ
धार्मिक उत्पीड़न की घटनाएं और उस पर राजनीति पिछले एक दशक से हर जगह चर्चा का विषय बनी हुई है. ऐसा देश के विभिन्न हिस्सों में हुआ है और महाराष्ट्र इसका कोई अपवाद नहीं है.
इसका ताजा उदाहरण भाजपा विधायक नितेश राणे के भाषण और उसके बाद होने वाली प्रतिक्रिया है. नितेश राणे पहले शिवसेना में थे, फिर वह कांग्रेस में गए और अब बीजेपी में शामिल हैं.
आक्रामक हिंदुत्व की भाषा का इस्तेमाल के साथ मुस्लिम समुदाय को धमकाने वाला उनका एक बयान मीडिया की सुर्ख़ियों में रहा था.
पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र में कई ऐसी घटनाएँ या घटनाएँ हुईं जिन्होंने तनाव पैदा किया.
पिछले कुछ सालों में राज्य के कई जिलों में ‘हिंदू जनाक्रोश मोर्चे’ हुए हैं. इसमें खुलेआम कथित ‘लव जिहाद’, ‘लैंड जिहाद’ के आरोप लगाए गए.
औरंगजेब के पोस्टर लगाने और सोशल मीडिया पर स्टेटस डालने के कारण कई जगहों पर दंगे हुए. कोल्हापुर में शुरू हुआ दंगा पूरे राज्य में फैला.
इन तनावपूर्ण धार्मिक संबंधों का असर गाँवों में भी देखा गया. सतारा के ग्रामीण इलाके में हुए दंगे में एक व्यक्ति की मौत हो गई.
कोल्हापुर के पास विशालगढ़ इलाके में कथित अतिक्रमण को लेकर विवाद के कारण गजापुर में आवासीय घरों पर हमले हुए.
गोमांस के संदेह में जलगांव से कल्याण जाने वाली ट्रेन में एक बूढ़े मुस्लिम की पिटाई की गई. उस वीडियो के वायरल होते ही देशभर से प्रतिक्रियाएं आने लगीं.
दरअसल पिछले कुछ साल में महाराष्ट्र में तनाव बढ़ाने वाली ऐसी कई घटनाएं लगातार हो रही हैं.
अकोला, अहिल्यानगर, संगमनेर, छत्रपति संभाजीनगर और मुंबई में तनाव की घटनाएं समय समय पर आती रही हैं.
पुणे की सामाजिक कार्यकर्ता तमन्ना इनामदार ने बताती हैं, “मुस्लिम घर की महिलाएं घर के काम करने के बाद परिवार के बच्चों और छोटे बच्चों के वापस लौटने का बेसब्री से इंतजार करती हैं कि बाहर निकलने के बाद उनके साथ पता नहीं क्या कुछ हो जाए.”
मुस्लिम समुदाय के घरों में फैले डर के बारे में तमन्ना इनामदार ने कहा, “युवाओं का खून गर्म है. वे उत्साह की स्थिति में हैं. क्या हमारे बच्चों के साथ कुछ गलत होगा? बड़ी चिंता यह है कि क्या बच्चे सुरक्षित घर लौटेंगे. राजनीति इस तरह का डर फैलाने में सफल है.”
क्या आज की मुस्लिम राजनीति इसी डर की मानसिकता के इर्द-गिर्द घूमती है और क्या इसका असर इस समुदाय के मतदान पर भी पड़ता है?
लोकसभा चुनाव के रुझान और उससे पहले हुए कुछ अन्य राज्यों के मतदान को देखकर तो यही लगता है कि ऐसा हो रहा है.
बालासाहेब ठाकरे के समय से ही मुस्लिम विरोध, शिवसेना द्वारा अपनाए गए हिंदुत्ववादी रुख का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. वह विरोध सिर्फ भाषणों के जरिए नहीं बल्कि सड़कों पर भी था.
लेकिन उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना ने जब उदारवादी रवैया अपनाया तो उसे मुस्लिमों के वोट भी मिले. यह नगर निगम चुनावों में भी साफ़ दिखा.
क्या इस बदलाव के पीछे भी मुस्लिम मतदाताओं में डर का होना था?
मुंबई के माहिम में पेशे से वकील अकील अहमद कहते हैं, “अगर एक बिल्ली पर 10 अन्य बिल्लियां हमला कर दें तो उसका भाग जाना सिर्फ़ डर नहीं है. वह खुद को अकेले बचा रही है. यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है.”
विधानसभा चुनाव से पहले शिवसेना भवन में मुस्लिम समुदाय की उद्धव ठाकरे के साथ बैठक हुई, जिसमें उन्होंने ‘इतिहास भूलकर आगे बढ़ने’ की अपील की, उस बैठक में अकील खुद भी मौजूद थे.
माहिम में अपने कार्यालय में अपने सहयोगियों के साथ अकील कहते हैं, “इतिहास में कई चीजें हुई हैं. वे सुखद नहीं हैं. लेकिन अगर हम केवल इतिहास पर ध्यान देंगे, तो भविष्य सुरक्षित नहीं होगा. निशाना पर मुसलमान हैं. अज़ान, सड़क पर नमाज़, मदरसा और मस्जिद अब विवाद के विषय हो चुके हैं. इसलिए समुदाय असुरक्षित महसूस कर रहा है और एकजुट है.”
कथित ‘वोट जिहाद’ विवाद
ऐसे में जो ध्रुवीकरण हुआ है, क्या उसमें मुस्लिम वोट बीजेपी के ख़िलाफ़ एकजुट होता दिख रहा है?
विधानसभा के गणित में यह सवाल भी निर्णायक साबित होने वाला है.
लोकसभा में ये वोट महा विकास अघाड़ी के उम्मीदवारों को मिले थे. इसलिए बीजेपी नेताओं ने इसे ‘वोट जिहाद’ क़रार दिया था और इसको लेकर विवाद देखने को मिला था.
वहीं मुस्लिम समुदाय के नेता और विपक्षी राजनीतिक दल इस शब्द को स्वीकार नहीं करते.
कांग्रेस ने चुनाव आयोग से इसको लेकर शिकायत भी की है. लेकिन फिर भी बीजेपी अपने चुनावी कैंपेन में इसका जिक्र लगातार करती रही.
महाराष्ट्र बीजेपी के शीर्ष नेता और गृह मंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी कोल्हापुर में एक कार्यक्रम में मुस्लिमों के बीच जारी वोटिंग को ‘वोट जिहाद’ कहा.
बीजेपी का आकलन है कि उनके ख़िलाफ़ गए इन वोटों की वजह से ही लोकसभा में कुछ सीटें बीजेपी के हाथ से निकल गईं.
फडणवीस ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था, “इस चुनाव में, हमने देखा कि वोट जिहाद कैसे हो रहा है. हमारे उम्मीदवार जो धुले में पांच विधानसभा क्षेत्रों में 1 लाख 90 हज़ार वोटों से आगे थे लेकिन केवल मालेगांव निर्वाचन क्षेत्र में 1 लाख 94 हजार वोटों से पीछे हो गए और चार हज़ार वोटों से चुनाव हार गए.”
लेकिन बीजेपी के इन दावों को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं.
हाल ही में ‘लोकसत्ता’ में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक ‘लोकसभा चुनाव और पिछले चुनावों के आंकड़ों की तुलना करें तो मुस्लिम बहुल सीटों पर बीजेपी के नेतृत्व वाली ‘महायुति’ का वोट प्रतिशत बढ़ा है.’
लेकिन भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े इससे सहमत नहीं दिखते.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्था राष्ट्रीय मुस्लिम मंच मुस्लिम समुदाय के साथ काम करता है.
इसके राष्ट्रीय समन्वयक इरफ़ान अली पीरज़ादा कहते हैं, “मुसलमान बीजेपी को हराना चाहते हैं और इस चक्कर में वे भूल गए हैं कि उनका प्रतिद्वंद्वी कौन है. वे भूल गए हैं कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में, मुंबई दंगों में शिव सेना का कितना हाथ था.”
उन्होंने कहा, “हमने देखा है कि कैसे उनके नेता जरूरत पड़ने पर फडणवीस और अमित शाह के पास जाते हैं. लेकिन जब चुनाव का समय आता है, तो वे विरोध करते हैं. उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भाजपा उनकी प्रगति और विकास के लिए क्या कर रही है. उनके दिलों में विरोध भरा हुआ है.”
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मुस्लिम समाज के स्कॉलर मुस्तफ़ा फ़ारूक़ी कहते हैं, “इस समय भारतीय मुसलमान हर तरफ़ से हमलों का सामना कर रहा है. इसलिए सामाजिक न्याय की उम्मीदों को किनारे रखकर स्पष्ट राजनीतिक रुख अपनाना और ख़ुद को सुरक्षित रखना उनकी पहली ज़रूरत बन गई है. इसका नतीजा चुनावों में दिख रहा है.”
यही वजह है कि मुसलमानों का शिवसेना के साथ जाना उन्हें अनुचित नहीं लगता. वे कहते हैं, “शिवसेना बाबरी विध्वंस या मुंबई दंगों में शामिल थी.
यह इतिहास है और कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता है. लेकिन इससे परे, अगर हम इसे भविष्य में या एक नीति के रूप में देखें, तो फ़िलहाल, उनकी प्राथमिक ज़रूरत सुरक्षा और शांति है.”
मुसलमानों का राजनीतिक नेतृत्व कहाँ है?
महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम मतदाताओं, नेताओं, लेखकों-विचारकों से बात करने पर ऐसा लगता है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी का मुद्दा मुस्लिम समुदाय के लिए ज़रूरी हो गया है.
वैसे महाराष्ट्र के गठन के बाद से केवल एक ही मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं, अब्दुल रहमान अंतुले. समय के साथ मुसलमानों की राज्य की सत्ता में हिस्सेदारी और भी कम होती गई.
सोलापुर स्थित मुस्लिम लेखक और पत्रकार सरफराज अहमद स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “यही सवाल है. मुसलमानों के लिए कौन बोल रहा है? नवाब मलिक थोड़ा बोलते थे, लेकिन उनका क्या हुआ?”
“हुसैन दलवई मुख्यधारा से बहुत दूर चले गए हैं. हसन मुश्रीफ़ मुस्लिम राजनीति नहीं करना चाहते हैं. अब्दुल सत्तार बहुसंख्यक निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए हैं, इम्तियाज जलील चुनाव हार चुके हैं.?”
“इनमें से कोई भी नेता बोलना नहीं चाहता. क्योंकि अगर वे बोलेंगे तो उन्हें अबू आज़मी की तरह हटना पड़ेगा. असदुद्दीन ओवैसी बोलते हैं, लेकिन अगर कोई मुसलमान उनके पक्ष में जाता है, तो उसे कट्टरपंथी कहा जाता है. ऐसे समय में पहल कौन करेगा.”
यह सच है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में भी मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या घटी है. यह बहुलवादी राजनीति का परिणाम था.
मुस्लिम नेताओं को लगता है कि ‘ध्रुवीकरण की राजनीति का एक परिणाम यह है कि जिन पार्टियों को मुस्लिम वोट मिल रहे हैं, वे भी मुसलमानों को मैदान में नहीं उतारती हैं क्योंकि अगर वे मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारेंगे तो उन्हें हिंदू वोट नहीं मिलेंगे.’
source: bbc.com/hindi