पृथ्वी के असंख्य और विविध उपहारों को जीते हुए हम यह भूल ही नहीं गए हैं कि हमने इससे क्या पाया है, हमें यह भी ज्ञात नहीं कि हमने क्या खोया है. लेकिन कभी-कभी जीवन में हमारे आस-पास ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि हम सब प्रकृति और पर्यावरण के बारे में कितना कम जानते हैं.
1992 में जब एकाएक मेरा स्थानांतरण कांथी से अलीपुरद्वार सबडिवीज़न हो गया, मैं एक पूर्णतः नई जगह में नहीं आया था. 1990 की सर्दियों में प्रशासनिक, पुलिस तथा न्यायिक सेवाओं के नवनियुक्त अधिकारियों के साथ मैं भूमि प्रशिक्षण के लिए छह सप्ताह अलीपुरद्वार शहर में बिता चुका था.
अलीपुरद्वार सबडिवीज़न (अब ज़िला) पश्चिम बंगाल के उत्तर-पूर्वी कोने में असम और भूटान की सीमाओं पर स्थित है. सबडिवीज़न के दक्षिण छोर से ऊंचाई धीरे-धीरे बढ़ती जाती है तथा भूटान तक पहुंचने तक कुछ स्थानों में ऊंचे पहाड़ मिलते हैं. लेकिन भारत-भूटान सीमा पार करते ही चढ़ाई शीघ्र ही पहाड़ियों में परिवर्तित हो जाती है. इस एक सबडिवीज़न में दो राष्ट्रीय उद्यान थे, जलदापारा और बक्सा—जो व्याघ्र अभयारण्य (टाइगर रिज़र्व) भी है.
बक्सा अभयारण्य का प्रशासनिक मुख्यालय अलीपुरद्वार शहर है. आज के स्तंभ की घटना, जो मेरे अलीपुरद्वार आगमन के पहले घटी थी, की जानकारी मुझे इस अभयारण्य के प्रभागीय वन अधिकारी तथा कुछ स्थानीय लोगों से मिली थी.
बक्सा क़िला, जिसका निर्माण सत्रहवीं या अठारहवीं सदी में हुआ था, बक्सा व्याघ्र अभयारण्य के उत्तरी छोर की एक पहाड़ी पर अवस्थित है. इस बात पर मतभेद है कि इसका निर्माण भूटान के नरेश ने किया था या कूच बिहार के महाराजा ने, परंतु इस विचार पर पूरी सहमति है कि तिब्बत, भूटान और भारत को जोड़ने वाले पहाड़ी घाटियों से गुजरते हुए व्यापार मार्ग की सुरक्षा एवं पर्यवेक्षण के लिए क़िले का निर्माण किया गया था.
1865 में भूटान तथा अंग्रेजों के बीच सिंचुला की संधि हुई जिसके द्वारा अंग्रेजों ने पहाड़ों के नीचे दुआर क्षेत्र के लंबे समतल इलाके पर अपना कब्जा बना लिया और कुछ वर्षों पश्चात इसे चाय के बाग़ानों में बदल दिया. साथ ही इस संधि से अंग्रेजों को मिला बक्सा क़िला.
बीसवीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज़ी हुकूमत ने बक्सा क़िले को कारावास में तब्दील कर दिया. तीसरे दशक में जिन स्वतंत्रता संग्रामियों तथा कम्युनिस्ट नेताओं को अंडमान सेलुलर जेल नहीं भेजा जाता था उन्हें बक्सा क़िले में बंद कर दिया जाता था. 1947 में इस कारावास को बंद कर दिया गया और 1959 के बाद यह तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं का शरणालय बन गया. 1980 के दशक में बक्सा क़िले को सुरक्षित स्मारक का दर्जा मिला और फिर धीरे धीरे इसका संरक्षण भी आरंभ हुआ.
बक्सा क़िले तक पहुंचने का संकरा पहाड़ी रास्ता घने जंगलों और दुर्गम घाटियों के बीच सिहरता हुआ जाता था. चूंकि क़िला अब बक्सा व्याघ्र अभयारण्य का भाग बन चुका था, वहां पास के वन्य ग्रामों के निवासी, सरकारी (विशेषतः वन विभाग के) कर्मचारी, तथा इक्के-दुक्के साहसिक सैलानी ही जाते थे. बक्सा क़िला वन विभाग के भूटिया बस्ती बीट (इस विभाग की सबसे छोटी इकाई) का अंश था तथा कुछ दिनों के अंतर में वहां से वन प्रहरी क़िले और उसके इर्द-गिर्द के जंगलों के निगरानी के लिए जाते थे.
सितंबर की एक सुबह बीट बाबू ने वन प्रहरी हरका छेत्री को निर्देश दिया कि वह बक्सा क़िले से दो किलोमीटर पहले घाटी के घुमाव वाली ढलान को अच्छी तरह देखकर आए. एक दिन पहले लकड़ी चोरों ने वहां सड़क से कुछ दूर नीचे उतरकर एक चांप के पेड़ को काटने की कोशिश की थी.
हरका तैयार होकर, खाना खाकर साढ़े दस-ग्यारह बजे घने जंगलों से ढकी घाटी के लिए चल पड़ा. अपनी आदतानुसार, उसने लकड़ी की म्यान में लंबा, तेज धार वाला दाब भी रख लिया था जिससे वह झाड़ियों को का कर अपना रास्ता बना सकता था और जानवरों से अपनी रक्षा भी कर सकता था. हरका छेत्री के चेहरे की झुर्रियों और उसके सफ़ेद बाल यह ज़रूर बताते थे कि उसने कई दशक खुले आकाश के नीचे जंगल में काम करते बिताए हैं पर उसकी सदाबहार मुस्कान से ऐसा नहीं लगता था कि वह कुछ महीनों में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने वाला है.
डेढ़ घंटे चलने के बाद, गंतव्य से लगभग एक किमी पहले उसे क़िले की ओर से आ रहे भूटिया बस्ती के दो लोग मिले. रुककर हरका ने उनसे आगे के जंगल का हाल लिया और उनके साथ बीड़ी पीते हुए गपशप भी की.
शाम होते होते बारिश शुरू हो गई. रात तक जब हरका वापस नहीं आया तो उसके परिजनों ने सोचा कि, जैसा अक्सर होता था, वह क़िले के पास किसी पहरा टावर में वर्षा से बचने के लिए रुक गया होगा. लेकिन जब अगली धूप भरी सुबह भी लगभग बीतने लगी और उसके संबंध में कोई नई ख़बर नहीं आई, तब हरका के परिवार को चिंता हुई.
चूंकि बीट बाबू काम से अलीपुरद्वार गए थे हरका की पत्नी और नौजवान पुत्र उस क्षेत्र के रेंज अधिकारी, यानी रेंजर, के पास गए. हरका के पुत्र ने रेंज अधिकारी को पूरी बात बताई. देर दोपहर वन विभाग के खोजी दल ने बक्सा क़िले के रास्ते के नीचे फैली पहाड़ी ढलानों पर हरका के लिए खोज आरंभ की. परंतु अंधेरा होने के बाद भी हरका का कोई पता न चला. थककर खोजी दल वापस चला गया. हरका के घर पर मातम-सा माहौल छाने लगा.
अगले दिन भूटिया बस्ती से एक खोजी दल फिर निकलने की तैयारी कर ही रहा था कि क़िले के पास की एक बस्ती के दो लोगों के कंधे का सहारा लिए लंगड़ाता हुआ हरका अपने घर पहुंचा.
हरका ने बताया कि जिस ढलान की जांच करने के लिए बीट बाबू ने उसे भेजा था, वहां उसे कुछ भी संदिग्ध नहीं मिला. उसने सोचा कि वह कुछ और जंगल भी देख ले. दोपहर बाद, चढ़ते-चलते वह काफ़ी आगे निकल गया और ऐसी घाटी में आ पहुंचा जहां कभी पहले नहीं आया था. वहां एक खड़ी ढलान पर उसे कई पौधे दिखे जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था. वहीं उसका पांव फिसला और गिरता, लुढ़कता, पेड़ों और झाड़ों से टकराता वह काफ़ी नीचे पहुंचकर झाड़ियों के बीच अटक गया. उसके बाएं पैर में तीक्ष्ण पीड़ा हो रही थी तथा कुछ देर के प्रयास के पश्चात ही वह अपना घुटना सीधा कर पाया. घुटना टूटा तो नहीं था परंतु उसमें बहुत बुरी तरह मोच आ गई थी. उस सूजे हुए पैर से हरका का चलना तो दूर उस पर खड़ा होना भी असंभव था. हरका काफ़ी देर तक मदद के लिए जंगल में चिल्लाता रहा, परंतु वहां कोई रहता तभी तो आता.
पहाड़ों पर संध्या तेज़ी से घर कर लेती है, तथा वृक्षों के तले, झाड़ियों के बीच और भी जल्दी. हरका समझ गया कि उसे रात उसी स्थान पर बितानी पड़ेगी. एक अच्छी बात यह थी कि हरका का दाब उसके बेल्ट में ही था. कम से कम वह छोटे मोटे जानवरों से अपनी रक्षा कर सकता था. भूखे प्यासे, आधी जागी-सोई हालत में हरका ने वहीं झाड़ियों की शरण में रात बिताई. अगली सुबह घुटने की तीव्र पीड़ा से वह उठा तो सही लेकिन जैसे-जैसे सूरज आकाश में चढ़ने लगा हरका भूख प्यास से परेशान हो गया. प्यास से विवश होकर वह अपने चारों ओर उगते एक पौधे के मोटे मगर कोमल पत्तों को चबाने लगा. उन पत्तों का एक अद्भुत स्वाद था तथा सौभाग्य से उन्हें खाने से हरका की प्यास मिट गई.
दिन के दौरान हरका ने समय-समय पर फिर आवाज़ लगाई पर कोई नहीं आया. चूंकि खाने को और कुछ न था उसने उस पौधे के पत्तों से ही अपना पेट भरा. उसकी दूसरी रात फिर उन्हीं झाड़ियों के बीच कटी.
अगली सुबह जब हरका की नींद खुली तो उसके घुटने की सूजन और दर्द बहुत कम हो चुका था. बाएं पैर पर वह अपना पूरा वजन अब भी नहीं दे सकता था, लेकिन झाड़ियों और वृक्षों की टहनियों को पकड़ कर अब वह बहुत धीरे-धीरे चल सकता था. चूंकि चढ़ना कठिन था, हरका ने पहाड़ी से उतरने का निश्चय किया. वह कई बार फिसला और लुढ़का भी, तथा उसकी दिशा बदलती रही परंतु सरकता हुआ वह पहाड़ी के तले की ओर बढ़ता गया. वहीं उसे वह दो लोग मिल गए जिनकी मदद से वह अपने घर पहुंचा.
महीने भर बाद एक सुबह बक्सा रेंज के रेंजर अपने दफ़्तर में बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि खुले दरवाज़े से किसी ने नमस्कार किया. उन्होंने नज़र उठाई और फिर मुस्कराकर युवक से कहा, ‘भेतोरे एशो. तोमार बाबा केमोन आचे (अंदर आओ. तुम्हारे पिता कैसे हैं)?’
युवक ने विस्मय से पूछा, ‘आमार बाबा, सोर (मेरे पिता, सर)?’
‘तूमी हरकार छेले ना (तुम हरका के पुत्र हो ना)?’
‘ना, सोर. आमी ई हरका छेत्री (नहीं, सर. मैं ही हरका छेत्री हूं).’
हरका छेत्री के चेहरे पर झुर्रियों की जगह यौवन की चमक थी, उसके बाल घने और काले थे और बदन गठा हुआ. एकदम नहीं लगता था कि वह कुछ महीनों में सेवानिवृत्त होने वाला है.
उस घटना के पश्चात ज़िले के कई प्रौढ़ तथा वृद्ध अधिकारी उस नरम मोटे पत्तों वाले पौधे की खोज में कई दिन बक्सा पहाड़ी की ढलानों पर भटकते रहे, कई लोग फिसले और गिरे, और इन सभी लोगों ने कई पौधों और झाड़ियों के पत्तों को बारी-बारी से चबाकर मुंह कड़वा या कसैला किया, पर किसी को भी वह पौधा हाथ न लगा. हरका को भी नहीं.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
