अब्दुल सलाम क़ादरी-एडिटर इन चीफ
मनेन्द्रगढ़(छत्तीसगढ़)…गोंडवाना फॉसिल पार्क—जिसे संरक्षित करने, विकसित करने और विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के नाम पर एक बड़े अधिकारी को अवॉर्ड तो मिल गया…
लेकिन जब उसी पार्क में हुए खर्चों की बात आई, जब उसी विकास का हिसाब मांगा गया… तो फाइलों पर ऐसी चुप्पी छा गई, जैसे पत्थरों में छिपे करोड़ों साल पुराने जीवाश्म भी बोलने से डर रहे हों।
गोंडवाना फॉसिल पार्क…
जहाँ करोड़ों वर्षों पुरानी धरती की कहानी दर्ज है।
लेकिन आजकल यहां उस इतिहास से ज्यादा चर्चा है—हिसाब की गायब किताबों की।
आरटीआई में पूछे गए सवाल सरल थे—
“कितना पैसा आया? कहां खर्च हुआ? किस काम पर कितना भुगतान किया गया?”
लेकिन जवाब नहीं आया।
और आया भी तो सवालों से बचते हुए… अधूरा, कटा-फटा, मनमर्जी वाला।
अब सवाल उठ रहे हैं—
क्या यही पारदर्शिता है, जिसके लिए अवॉर्ड लिया गया?
क्या फॉसिल पार्क का विकास सिर्फ अवॉर्ड मंच की तस्वीरों में हुआ है?
या फिर जमीन पर कम… और कागजों पर ज्यादा?
स्रोत बताते हैं कि
पार्क के नाम पर लाखों का बजट बीते सालों में आया,
लेकिन मौके पर जितना काम दिखता है,
उतने पैसों का हिसाब फाइलें देने को तैयार नहीं।
और जब आरटीआई में बिंदुवार जवाब मांगा गया,
तो विभाग अचानक असहज हो गया—
जवाब देना टालता रहा, तारीखें आगे बढ़ती रहीं,
फाइलें इधर-उधर घूमती रहीं…
और अधिकारी चुप्पी की मोटी परत में छिप गए।
यहीं से शुरू हुई चर्चाएं—
क्या गोंडवाना फॉसिल पार्क में सिर्फ पत्थर ही नहीं छिपे हैं,
बल्कि खर्चों के रहस्य भी गहरे दबे हैं?
सवाल
जब फॉसिल पार्क में काम सही तरीके से हुआ है,
तो हिसाब देने में डर किस बात का?
क्यों पारदर्शिता से बच रहा है विभाग?
और क्यों एक अवॉर्ड पाने वाला अधिकारी
आरटीआई के सामने जवाब देने से कतराता है?
गोंडवाना फॉसिल पार्क में करोड़ों साल पुराने जीवाश्म तो सुरक्षित हैं…?
लेकिन लगता है—खर्च का हिसाब आज भी खतरे में है।









