July 23, 2025 5:38 am

सूफिज़म में क्या होती है खानकाहों की परम्परा; इस्लाम में मज़ार और खानकाहों का क्या है स्थान?

अब्दुल सलाम क़ादरी-

Khanqah and Mazar in Islam: इस्लाम की तारीख, रूहानियत और सकाफत में ‘खानकाह’और ‘मजार’ दो ऐसे अल्फाज हैं जो खास जगहों को जाहिर करते हैं. इनके पीछे सदियों पुरानी रूहानियत, इबादत और अकीदत छिपी हुई है. सूफियों और दरवेशों की खानकाहें सिर्फ इबादत की जगह नहीं थीं, बल्कि रूहानी तालीम के अज़ीम मरकज़ थे. हम में से बहुत से लोगों को ‘खानकाह’और ‘मजार’ में फर्क नहीं मालूम होगा, इनमें से एक बड़ी तादाद मुसलमानों की भी है. इस लेख में आज इसी पर चर्चा करेंगे.

क्या है खानकाह?

हिंदुस्तान में कई मशहूर खानकाह और मजार हैं, जहां हर साल बड़ी तादाद में मुस्लिम कौम के साथ दूसरी कौम के लोग भी जियारत के लिए पहुंचते हैं. सबसे पहले बात करते हैं, खानकाह के बारे में. ‘ख़ानक़ाह’ एक ऐसा लफ्ज है, जिसके मायने सिर्फ एक इमारत या पनाहगाह से नहीं बल्कि रूह और कल्ब की पाकीजगी के साथ रूहानी तरबियत की जगह को जाहिर करता है. ख़ानक़ाह के मायने हैं ‘तकिया'(आराम की जगह), जबकि अरबी में मायने ‘ज़ाविया’ है. यह लफ्ज फारसी के “ख़ानगाह” से लिया गया है, जिसका मतलब होता है रिहाइशगाह.

खास तौर पर वह जगह जहां दरवेश और सूफ़ी संन्यासी दुनिया से दूर होकर खुदा की  इबादत में मग्न रहते हैं. यह एक तरह से बौद्ध मठ के करीब होता है, जहाँ एक शिष्य दुनिया से विमुख होकर सन्यास लेकर गुरु के शरण में आ जाता है. गुरु से अध्यातम और धार्मिक ज्ञान की शिक्षा लेता है, और ईश्वर की भक्ति में लीं रहता है. खानकाहों में रहने वाले लोग भी लगभग इसी तरह होते हैं. जो दुनिया की फ़िक्र छोड़कर अपना दीन और आखिरत संवारने में दिन-रात लगे रहते हैं.

ख़ानक़ाह दो लफ्जों से मिलकर बना है. ‘ख़ान’ यानी ‘मकान’ और ‘क़ाह’ यानी ‘दुआ और इबादत’. इस प्रकार ख़ानक़ाह का अर्थ है: ‘इबादत का घर’. मशहूर सूफी हजरत नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली ने ख़ानक़ाह के लिए ‘ख़ैरुल मजालिस’ लफ्ज का इस्तेमाल किया है, जिसका मतलब है भलाई के लिए की जाने वाली मीटिंग या बैठक है. ख़ानक़ाह को सीधे लफ्जों में कहें तो वह जगह जहां न सिर्फ इबादत की जाती है, बल्कि दुआओं के कुबूलियत की भी उम्मीद बढ़ जाती है.  हालांकि, मूल इस्लाम या इस्लाम के अन्य मसलक सूफिज़म को नहीं मानते हैं. कुछ समूह इसे गैर- इस्लामिक परम्परा मानकर इसका विरोध भी करते हैं.

ख़ानक़ाह की खासियत

ख़ानक़ाह में दरवेश और सूफी दुनिया से कटकर अल्लाह की याद में मगन रहते हैं. वहां एक कामिल पीर या शेख की मौजूदगी लाजमी मानी जाती है. ऐसा रहनुमा या रहबर जो “वली-साज” हो, यानी जो इबादतगुजार (सालिकों) को रूहानियत ऊंचाई तक पहुंचा सके. वह शेख बाहरी जिंदगी के साथ तालिबइल्म के अंदरूनी हालात पर भी बारीक नजर रखता है और उसकी इस्लाह (सुधार) करता है.

हिंदुस्तान की मशहूर ख़ानक़ाहें 

हिंदुस्तान में कई तारीखी और रूहानी ख़ानक़ाहें आज भी मौजूद हैं, जो आज भी सूफ़ी रिवायात, मज़हबी तकरीबात और समाजी इत्तेहाद का मरकज़ बनी हुई हैं. इन जगहों पर साल भर लाखों जायरीन रूहानी सुकून हासिल करने और इबादत के लिए पहुंचते हैं. उन्हीं में से आज एक है, श्रीनगर की मशहूर ख़ानक़ाह-ए-मौला (शाह-ए-हमदान) है.

श्रीनगर की झेलम नदी के किनारे मौजूद यह ख़ानक़ाह 15वीं सदी में सुल्तान सिकंदर ने मशहूर सूफ़ी संत मीर सैयद अली हमदानी की याद में बनवाई थी. यह इमारत अपनी लकड़ी की नक्काशी, झूमते हुए कंदीलों और दीवारों पर की गई खूबसूरत नक्काशी के लिए मशहूर है. यहां हर साल हमदानी की वफात की सालगिरह पर बड़ी संख्या जायरीन पहुंचते हैं.

हिजड़ों का ख़ानक़ाह: दिल्ली के महरौली में मौजूद यह अनोखी ख़ानक़ाह 49 हिजड़ों की कब्रों और लोदी कालीन मस्जिद को समेटे हुए है. इसकी देखभाल पुरानी दिल्ली के तुर्कमान गेट के हिजड़ा बिरादरी के लोगों के जरिये की जाती है. यह जगह हिजड़ा बिरादरी के लिए मजहबी और सामाजिक इत्तेहाद की अलामत बन गया है.

इसी तरह जम्मू कश्मीर के राजौरी में बाबा ग़ुलाम शाह बदशाह की ख़ानक़ाह, बिहार की राजधानी पटना की फ़ैयाज़िया ख़ानक़ाह मशहूर है. फैयाजिया ख़ानक़ाह का शुमार क़ादरिया सूफ़ी सिलसिले से जुड़ी एक पुरानी ख़ानक़ाह के रूप में होती है. यह सामाजिक इत्तेहाद और सकाफती मेलजोल की निशानी है.

दरगाह क्या हैं?

इस्लामी जगत में ‘खानकाह’ से मिलती जुलती एक और जगह ‘दरगाह’ होती है. ‘दरगाह’ को ‘मजार’ भी कहा जाता है. दरगाह दो फ़ारसी ‘लफ्जों’ से मिलकर बना है. ‘दर’ जिसके मायने हैं ‘अंदर या दरवाजा’ और ‘गाह’ का मतलब ‘जगह’ से है.  हालांकि, इसके मायनों को ‘दरवाजे की जगह’ से नहीं लिया जाता है. फ़ारसी डिक्शनरी में ‘दरगाह’ के मायने होते हैं- दरबार, कचहरी या मकबरा.

वहीं, उर्दू में इसे चौखट, आस्ताना, शाही दरबार, ख़ानक़ाह या किसी बुज़ुर्ग का मज़ार या रौज़ा के रूप में समझा जाता है. जुबान और तहज़ीब की लिहाज से देखें तो रौजा, मज़ार और मक़बरा, ये सभी लफ्ज फ़ारसी और ईरानी सकाफत से प्रभावित हैं. साफ शब्दों में कहें तो मज़ार का मायने ज़ियारत की जगह, आस्ताना या क़ब्र से है. ऐसी जगह स्थल जहां दुआएं क़ुबूल होती हैं.

दरगाह में होती किसी खास शख्स की कब्र

मज़ार एक तरह से मजहबी जगह होती है, जहां किसी सूफ़ी संत, वली, पीर या किसी खास शख्स की कब्र होती है. यह जगहें मुसलमानों में रूहानी अकीदत और ईमान का सेंटर माना जाता है. मजारों पर जायरीन फूल, इत्र और चादर चढ़ाते हैं और फातिहा पढ़ते हैं. कई मजारों पर लंगर का ऐहतमाम भी होता है, जहां हज़ारों गरीबों और जरूरतमंद लोगों को खाना खिलाया जाता है.

कुछ मज़ार या दरगाहों में क़व्वाली की महफ़िलें भी सजती हैं, जो अकीदतमंदों को रूहानियत में डुबो देती है. हालांकि, इस्लाम में खास फ़िरके को छोड़कर मजारों से दुआ मांगने को जायज नहीं मानते हैं, लेकिन सूफ़ी परंपरा में यह अल्लाह की बारगाह तक पहुंचने का एक जरिया माना जाता है या फिर कहें इन्हीं बुजुर्गों से अल्लाह के सामने पैरवी लगवाई जाती है.

मजारों और वहां पर इबादत को लकर भी इस्लाम के मुख्तलिफ मसलकों ( School of Thoughts) के बीच मतभेद हैं. सऊदी अरब का वहाबी और भारत का देवबंदी फिरका इसे सही नहीं मानता है. मरे हुए किसी इंसान, पीर या वाली की कब्रों को निशानी बनने से मूल इस्लाम रोकता है. लेकिन सूफिजम और भारत का बरेलवी मसलक इसे गलत नहीं मानता है.

इन मजारों पर उमड़ती है भीड़

हिंदुस्तान में कई मशहूर सूफी संतों और पीरों की मजारें हैं. इन मज़ारों पर हर साल लगने वाले उर्स और कव्वाली में शामिल होने के लिए देश दुनिया से हर साल बड़ी संख्या में जायरीन रुख करते हैं. इन मजारों में सूफ़ी संतों की कब्रें हैं. ये दरगाहें सभी मजहब के लोगों के लिए अकीदत की जगह है.

अजमेर शरीफ दरगाह: राजस्थान के अजमेर में मौजूद यह दरगाह सूफ़ी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की आखिरी आराम गाह है. यह हिंदुस्तान के सबसे पुराने और प्रमुख मुकद्दस जगहों में से एक मानी जाती है. यहां हर साल लाखों जायरीन आते हैं और यह इत्तिहाद और सौहार्द की निशानी मानी जाती है. पूरी दुनिया यहां के गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल दी जाती है.

निज़ामुद्दीन दरगाह: दिल्ली की यह दरगाह सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को वक्फ है. यहां रोज़ाना की कव्वाली की महफिलें लगती हैं, जो अपनी खास रूहानी माहौल के लिए मशहूर हैं. यह स्थान सूफ़ी सकाफत का मरकज है. 14वीं सदी में बनी इस मजार में हजरत निजामुद्दीन औलिया के साथ-साथ अमीर खुसरो और कई दूसरी सूफिया की कब्रें है.

पिरान कलियार शरीफ़: पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के हरिद्वार के पास मौजूद दरगाह सूफ़ी संत अलाउद्दीन अली अहमद साबिर कलियारी की मजार भी काफी मशहूर है. यह शांत और सुकून से पुर जगह है. इसी तरह आर्थिक राजधानी मुंबई की हाजी अली दरगाह भी सुर्खियों में बनी रहती है, जो वर्ली तट से लगे एक छोटे टापू पर बनी है. इस मजार में पीर हाजी अली शाह बुखारी तदफीन है.

दुनिया में जन्नत की नगरी के रुप में मशहूर श्रीनगर में हजरतबल श्राइन मजार कई मायनों में खास है. माना जाता है कि यह मजार पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक यादगार चीज उनके बालों को संजोए हुए है. जिसकी बहुत अकदीत के जियारत और इबादत की जाती है. यह कश्मीर के सबसे मुकद्दस मुसलमानों के मजबही जगहों में से एक है.

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Author: Khabar 30 Din

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