सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए संदर्भ पर केंद्र सरकार और देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी कर एक सप्ताह में जवाब मांगा है. संविधान पीठ में सीजेआई बी आर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रमनाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर शामिल है.
संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे सीजेआई बी आर गवई ने कहा कि अगली सुनवाई में हम समय-सीमा तय करेंगे. कोर्ट 29 जुलाई को इस मामले में अगली सुनवाई करेगा. मामले की सुनवाई के दौरान केरल सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील के के वेणुगोपाल ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यह मुद्दा सुनवाई योग्य नहीं है. वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि आज यह मुद्दा उठाना जल्दबाजी होगी. इसपर वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने भी सहमति जताई.
तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वकील ने भी राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ की योग्यता पर सवाल उठाया है. उन्होंने कहा कि हम सीधे प्रभावित होने वाले पक्ष है. लिहाजा यह सुनवाई योग्य नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला 8 अप्रैल को सुनाया था. राष्ट्रपति ने फैसलों के संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत बताया और इसे संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया है.
संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक सवालों पर राय मांगी है. राष्ट्रपति ने पूछा है कि जब राज्यपाल को भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है कि उनके सामने संवैधानिक विकल्प क्या है?, क्या राज्यपाल भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत किसी विधेयक को प्रस्तुत किए जाने पर अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों के प्रयोग करते समय मंत्री परिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य है? राष्ट्रपति ने कहा कि संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय के लिए किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है.
यह निर्णय संविधान के संघीये ढांचे, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्र की सुरक्षा और शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) जैसे बहुआयामी विचारों पर आधारित है. क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361 भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों के न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है? क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?
राष्ट्रपति ने क्या-क्या कहा?
उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग अनिवार्य रूप से बहुकेंद्रीय विचारों द्वारा नियंत्रित होता है, जिसमें संघवाद, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्र की अखंडता और सुरक्षा, शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत शामिल है. क्या संविधान की शक्तियों के इस्तेमाल और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत किसी भी तरह से प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
अनुच्छेद 200 के अनुसार राज्यपाल को विधानसभा द्वारा पारित विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर धन विधेयकों को छोड़कर, विधेयक को स्वीकृति प्रदान करनी होगी या जितनी जल्दी हो सके सदन द्वारा पुनर्विचार के लिए वापस भेजना होगा. प्रावधान यह भी निर्धारित करता है कि जब विधेयक पुनर्विचार के बाद राज्यपाल के पास भेजा जाता है तो राज्यपाल स्वीकृति नहीं रोकेंगे. राष्ट्रपति ने यह भी पूछा है कि जब देश का संविधान राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर फैसले लेने का विवेकाधिकार देता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कैसे कर सकता है.
कहां से शुरू हुआ मामला?
यह सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के फैसले के बाद हुआ, जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने तमिलनाडु सरकार के मामले की सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया था कि राज्य के राज्यपाल को विधेयकों पर अनिश्चित काल तक देरी किए बिना “जल्द से जल्द” कार्रवाई करनी चाहिए.
कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल “व्यक्तिगत असंतोष, राजनीतिक स्वार्थ, या किसी अन्य बाहरी या अप्रासंगिक विचार” के आधार पर अपनी सहमति नहीं रोक सकते और ऐसी चीजों को असंवैधानिक करार दिया था.
कोर्ट ने यह भी निर्णय दिया था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए किसी भी विधेयक पर 3 महीने के अंदर निर्णय लेना होगा और कहा था कि संवैधानिक ढांचे के तहत “पूर्ण वीटो” (absolute veto) और “पॉकेट वीटो” (Pocket veto) दोनों ही अस्वीकार्य हैं.
