July 23, 2025 10:01 am

बिहार: वोटर लिस्ट रिविज़न के ख़िलाफ़ याचिकाओं पर 10 जुलाई को सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (7 जुलाई) बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न) कराने के चुनाव आयोग (ईसीआई) के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए सहमति दे दी है.

यह याचिका वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल शंकरणारायणन और शादान फरासत ने दायर की.

ये याचिकाएं राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद मनोज झा, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), पीयूसीएल, सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव और लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा दाखिल की गई हैं.

लाइव लॉ के अनुसार, जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की पीठ ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को सुना कि जो मतदाता निर्धारित दस्तावेजों के साथ फॉर्म जमा नहीं कर पाएंगे, उनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाएंगे, भले ही वे पिछले 20 वर्षों से लगातार वोट देते आ रहे हों. उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया से आठ करोड़ में से चार करोड़ लोग प्रभावित हो सकते हैं.

वकीलों ने यह भी बताया कि चुनाव आयोग ने आधार या वोटर आईडी कार्ड को मान्य दस्तावेज नहीं माना है, जिससे इतने कम समय में प्रक्रिया को पूरा करना लगभग असंभव हो गया है.

रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे केंद्र सरकार, भारत निर्वाचन आयोग और अन्य संबंधित पक्षों को अपनी याचिकाओं की प्रतियां पहले से सौंपें. अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाओं की प्रतियां भारत के अटॉर्नी जनरल को भी सौंपी जाएं.

सुनवाई के दौरान, वरिष्ठ वकील सिंघवी ने कहा कि 24 जून की स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न अधिसूचना बिहार के करोड़ों गरीब और हाशिए के मतदाताओं पर सख्त समयसीमा थोपती है. इन लोगों से ऐसे दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं जिनमें आधार और राशन कार्ड शामिल नहीं हैं, जबकि यही आम लोगों के पास होते हैं.

कपिल सिब्बल ने कोर्ट से आग्रह किया कि वह निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी करे और यह सुनिश्चित करे कि आयोग स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न की प्रक्रिया को जल्दीबाज़ी में लागू करने के पीछे का कारण स्पष्ट करे, क्योंकि इस प्रक्रिया से बिहार के करोड़ों मतदाता अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं.

चुनाव आयोग ने कहा है कि उसने पूरे देश में स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न की प्रक्रिया शुरू करने का फैसला किया है और इसकी शुरुआत बिहार से की जा रही है. अन्य राज्यों के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बाद में घोषित किए जाएंगे.

पीठ इन याचिकाओं पर 10 जुलाई को सुनवाई करेगी.

एक दिन पहले ही पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने एक अख़बार के कॉलम में लिखा था कि इस घोषणा का समय संदेहास्पद है, खासकर तब जब कुछ राज्यों में नागरिकता जांच को लेकर उन्माद का माहौल बना हुआ है, और जहां स्थानीय निकाय स्तर पर ‘प्यूरिफिकेशन’ के नाम पर वोटरों के नाम हटाए गए हैं.

लवासा पूछते हैं, ‘बिहार में 2003 की मतदाता सूची को ही आधार क्यों बनाया गया है, जबकि उसके बाद भी मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण हुआ है?’

उन्होंने चुनाव आयोग के निर्देशों के पैरा 11 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि 2003 की मतदाता सूची को ‘नागरिकता की पूर्वधारणा सहित पात्रता का प्रमाणिक साक्ष्य माना जाए.’ इस आधार पर उन्होंने सवाल उठाया कि केवल 2003 तक के पंजीकृत नामों को ही साक्ष्य क्यों माना जा रहा है?

सबसे अहम बात, लवासा ने यह भी पूछा कि जब भारत में नागरिकता का कोई आधिकारिक दस्तावेज सरकार द्वारा जारी नहीं किया जाता, तब क्या चुनाव आयोग के पास नागरिकता साबित करने जैसी परीक्षा लेने का अधिकार है?

उन्होंने लिखा:

अब तक चुनाव आयोग दस्तावेजी साक्ष्यों और भौतिक सत्यापन के आधार पर नाम शामिल करता रहा है और नागरिकता अधिनियम के अनुरूप नागरिकता का कोई सबूत नहीं मांगता रहा. ऐसे में यह बहस का विषय है कि क्या चुनाव आयोग को अब ऐसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए जो लोगों को उनके मताधिकार से वंचित करने का जोखिम पैदा करती है, या उसे अपनी ही पहले की आज़माई हुई प्रक्रिया पर टिके रहना चाहिए.

लवासा आगे लिखते हैं, ‘उन मतदाताओं का क्या होगा जिनके नाम पहले सूची में थे, उन्हें वोटर कार्ड भी जारी हुआ था, लेकिन अब वे मान्य दस्तावेज़ न होने के कारण बाहर कर दिए गए हैं? क्या अब उनकी जिम्मेदारी सरकार लेगी या फिर न्यायपालिका?’

बता दें कि अशोक लवासा को 2018 में चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया था, उन्होंने 2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर चुनाव प्रचार के नियमों के कथित उल्लंघन को लेकर कई बार असहमति जताई थी.

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Author: Khabar 30 Din

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