बिहार विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग ने मतदाता सूची का स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न शुरू किया है, जिसमें 2003 के बाद जुड़े मतदाताओं से नागरिकता प्रमाण मांगा जा रहा है. विपक्ष ने इसे ‘गुप्त एनआरसी’ कहते हुए आशंका जताई है कि इस प्रक्रिया के चलते बड़ी संख्या में लोगों के नाम मतदाता सूची से काटे जा सकते हैं.
नई दिल्ली: बिहार में नवंबर 2025 से पहले होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भारत निर्वाचन आयोग (इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया) ने एक अहम फैसला लेते हुए राज्य में स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (एसआईआर) यानी विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू की है. इसके तहत न केवल मतदाता सूचियों को नए सिरे से तैयार किया जा रहा है, बल्कि 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं से नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज़ भी मांगे जा रहे हैं.
इस घोषणा के बाद से ही राज्य की राजनीति गरमा गई है. विपक्षी दलों ने इस कवायद को भाजपा के इशारे पर की गई कार्रवाई करार दिया है और आशंका जताई है कि इसका उद्देश्य बिहारियों से वोटिंग का अधिकार छीनना और चुनाव पूर्व एनआरसी जैसी प्रक्रिया को लागू करना है.
सवाल उठ रहे हैं कि— क्या एक महीने में आठ करोड़ मतदाताओं का वैध दस्तावेज़ों के साथ सत्यापन संभव है? क्या इससे गरीब और असुविधाग्रस्त समूहों के मताधिकार को छीनने का जोखिम है? क्या यह लोकतंत्र को मजबूत करने का कदम है या सत्ता पक्ष को चुनिंदा मतदाताओं तक ही सीमित करने की चाल?
विपक्ष का आरोप: ‘यह मतदाता अधिकार छीनने की साजिश’
राजद नेता तेजस्वी यादव ने एक्स (ट्विटर) पर लिखा, ‘बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा अचानक विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा अत्यंत ही संदेहास्पद और चिंताजनक है. निर्वाचन आयोग ने आदेश दिया है कि सभी वर्तमान मतदाता सूची को रद्द करते हुए हर नागरिक को अपने वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने के लिए नए सिरे से आवेदन देना होगा, भले ही उनका नाम पहले से ही सूची में क्यों न हो. बीजेपी-आरएसएस और एनडीए संविधान व लोकतंत्र को कमजोर क्यों करना चाह रही है?’
एक अन्य पोस्ट में तेजस्वी ने लिखा है, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्वाचन आयोग को बिहार की समस्त मतदाता सूची को निरस्त कर केवल 25 दिन में 1987 से पूर्व के कागजी सबूतों के साथ नई मतदाता सूची बनाने का निर्देश दिया है. चुनावी हार की बौखलाहट में ये लोग अब बिहार और बिहारियों से मतदान का अधिकार छीनने का षड्यंत्र कर रहे हैं. विशेष गहन पुनरीक्षण के नाम पर ये आपका वोट काटेंगे ताकि मतदाता पहचान पत्र न बन सके. फिर ये आपको राशन, पेंशन, आरक्षण, छात्रवृत्ति सहित अन्य योजनाओं से वंचित कर देंगे.’
एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस पूरी प्रक्रिया को ‘गुप्त एनआरसी’ करार देते हुए कहा, ‘निर्वाचन आयोग बिहार में गुप्त तरीक़े से एनआरसी लागू कर रहा है. वोटर लिस्ट में नाम दर्ज करवाने के लिए अब हर नागरिक को दस्तावेज़ों के ज़रिए साबित करना होगा कि वह कब और कहां पैदा हुए थे, और साथ ही यह भी कि उनके माता-पिता कब और कहां पैदा हुए थे. विश्वसनीय अनुमानों के अनुसार भी केवल तीन-चौथाई जन्म ही पंजीकृत होते हैं. ज़्यादातर सरकारी कागज़ों में भारी ग़लतियां होती हैं. बाढ़ प्रभावित सीमांचल क्षेत्र के लोग सबसे ग़रीब हैं; वे मुश्किल से दिन में दो बार खाना खा पाते हैं. ऐसे में उनसे यह अपेक्षा करना कि उनके पास अपने माता-पिता के दस्तावेज़ होंगे, एक क्रूर मज़ाक़ है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह होगा कि बिहार के ग़रीबों की बड़ी संख्या को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया जाएगा. वोटर लिस्ट में अपना नाम भर्ती करना हर भारतीय का संवैधानिक अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में ही ऐसी मनमानी प्रक्रियाओं पर सख़्त सवाल उठाए थे. चुनाव के इतने क़रीब इस तरह की कार्रवाई शुरू करने से लोगों का निर्वाचन आयोग पर भरोसा कमज़ोर हो जाएगा.’
सीपीआई-एमएलएल ने इस संबंध में मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखा है. पत्र में लिखा है, इस विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रकृति और पैमाना असम में हुए एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) की तरह है. असम में यह प्रक्रिया पूरी करने में छह साल लगे और अब तक असम सरकार इसे नागरिकों की अंतिम सूची मानने को तैयार नहीं है. असम में जनसंख्या 3.3 करोड़ थी, जबकि बिहार में चुनाव आयोग करीब 8 करोड़ मतदाताओं को सिर्फ एक महीने में कवर करना चाहता है — वह भी जुलाई के महीने में, जो बिहार में मानसून और कृषि का व्यस्त सीजन होता है.’
पत्र में आगे लिखा है, ‘यह तथ्य भी सर्वविदित है कि बिहार के लाखों मतदाता राज्य के बाहर काम करते हैं. बिहार में आखिरी बार इस तरह का गहन पुनरीक्षण 2002 में हुआ था, जब कोई चुनाव नहीं होना था और मतदाताओं की संख्या भी सिर्फ 5 करोड़ के आसपास थी. हमारी पार्टी बिहार में भूमिहीन गरीबों के मताधिकार के लिए सबसे सक्रिय रूप से संघर्षरत रही है, और हमें डर है कि चुनाव से ठीक पहले इतनी छोटी समयसीमा में किया गया यह विशेष गहन पुनरीक्षण पूरी चुनावी प्रक्रिया को अराजकता में झोंक देगा, और बड़े पैमाने पर गलतियां व नाम कटने की घटनाएं होंगी. इसीलिए हम आपसे अपील करते हैं कि इस अव्यावहारिक योजना को तत्काल वापस लिया जाए और मतदाता सूची को सामान्य तरीके से अपडेट किया जाए.’
जानकारों का विश्लेषण: वैधानिक खामियां और व्यावहारिक संकट
चुनावी प्रक्रिया पर नजर रखने वाले संगठन एडीआर के सह-संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर ने द वायर में लिखे एक विश्लेषणात्मक लेख में निर्वाचन आयोग के इस निर्णय पर कई सवाल उठाए हैं:
1. 21 साल बाद अचानक पुनरीक्षण क्यों?
आयोग ने 2003 के बाद पहली बार बिहार में गहन पुनरीक्षण का फैसला किया है. छोकर सवाल उठाते हैं कि क्या शहरीकरण, प्रवास या फर्जी नामों की समस्या पिछले दो दशकों में अचानक गंभीर हुई है? अगर ये समस्याएं लगातार थीं, तो 21 वर्षों तक इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
2. कार्यवाही की समयसीमा अव्यावहारिक
25 जून से शुरू होकर 30 सितंबर को अंतिम सूची प्रकाशित करने की प्रक्रिया में घर-घर जाकर दो बार फॉर्म भरवाना, चेकिंग, ड्राफ्ट रोल प्रकाशित करना, आपत्तियों का निपटारा आदि जैसे कई चरण शामिल हैं. छोकर इसे अत्यधिक महत्वाकांक्षी और वास्तविकता से परे मानते हैं — विशेषकर बिहार जैसे राज्य में जहां पढ़ाई की दर, बिजली की उपलब्धता, और प्रवास जैसी समस्याएं हैं.
3. नागरिकता साबित करने की वैधता और असर
चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार 2003 के बाद जो मतदाता सूची में जुड़े हैं, उन्हें नागरिकता साबित करनी होगी. छोकर सवाल उठाते हैं —
क्या इसका मतलब यह है कि अब तक उनके वोट और चुनाव नतीजे अमान्य हैं?
क्या यह बिना नाम हटाने की कानूनी प्रक्रिया के, मतदाताओं के अधिकार छीनना नहीं है?
क्या यह नाम हटाने की प्रक्रिया के नियम 21A का उल्लंघन नहीं है, जिसमें उचित सुनवाई का अवसर देने की बात कही गई है?
4. काग़ज़ नहीं दिखाएंगे’ की गूंज
छोकर अंत में कहते हैं कि नागरिकता प्रमाण के लिए माता-पिता तक के दस्तावेज़ मांगना सीधे-सीधे उस एनआरसी-सीएए विवाद की याद दिलाता है, जिसमें पूरे देश में विरोध हुआ था. वे सवाल करते हैं — क्या यह मतदाता सूची सुधार है, या गुप्त एनआरसी?
क्या चुनाव आयोग पारदर्शी है?
चुनाव आयोग ने कहा है कि इस प्रक्रिया में सभी राजनीतिक दलों की सहभागिता सुनिश्चित की जाएगी, लेकिन प्रोफेसर छोकर इसे पारदर्शिता का भ्रम बताते हैं. उनके अनुसार, नागरिकों के निजी दस्तावेज़ ECINET पोर्टल पर अपलोड किए जाएंगे लेकिन उन्हें केवल चुनाव अधिकारी ही देख पाएंगे — यह ‘पारदर्शिता’ कैसे हुई?
विशेष गहन पुनरीक्षण, नागरिकता साबित करने की शर्त, मानसून की चुनौती, ग्रामीण क्षेत्र की व्यावहारिक बाधाएं, और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप — इन सबके बीच यह स्पष्ट है कि बिहार की मतदाता सूची को लेकर अब सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि संवैधानिक और लोकतांत्रिक संकट भी खड़ा हो गया है.
छोकर की आशंका है कि यह कदम न केवल बड़े पैमाने पर लोगों को वोटिंग अधिकार से वंचित कर सकता है, बल्कि इससे देश भर में निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर भी गंभीर प्रश्न खड़े होंगे.
पहले नागरिकता साबित करने की आवश्यकता नहीं थी
पिछली बार जब ‘स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न’ किया गया था, तब बूथ लेवल अधिकारी घर-घर जाकर ‘गणना पैड’ के जरिए परिवार के मुखिया से जानकारी भरवाते थे.
लेकिन इस बार, प्रत्येक मौजूदा मतदाता को व्यक्तिगत रूप से एक गणना फॉर्म भरना होगा. जो मतदाता 1 जनवरी, 2003 के बाद मतदाता सूची में जोड़े गए हैं, उन्हें इसके अलावा अपनी नागरिकता का प्रमाण भी देना होगा. (जो लोग इस कट-ऑफ तिथि से पहले मतदाता सूची में शामिल थे, उन्हें स्वतः नागरिक माना जाएगा.)
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट कहती है कि ‘चुनाव आयोग का फॉर्म 6, जो नए मतदाताओं का पंजीकरण करता है, उसमें अब तक केवल यह घोषणा (Declaration) भरनी होती थी कि आवेदक भारतीय नागरिक है — कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं देना होता था (केवल आयु और पते का प्रमाण आवश्यक होता था). लेकिन इस बार बिहार में चल रहे इस विशेष पुनरीक्षण के लिए एक नया घोषणा-पत्र जोड़ा गया है, जिसमें नागरिकता का दस्तावेज़ी प्रमाण देना जरूरी किया गया है.’
निर्वाचन आयोग के आदेश में कहा गया है कि पासपोर्ट, जन्म प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र (SC/ST) जैसे दस्तावेज़ों के अलावा, यदि किसी व्यक्ति के माता-पिता का नाम 1 जनवरी, 2003 की बिहार की मतदाता सूची में दर्ज है, तो इसे भी पर्याप्त दस्तावेज़ माना जाएगा.
हालांकि, निर्वाचन आयोग ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि कितने लोगों को नागरिकता का प्रमाण देना होगा, लेकिन अनुमान है कि 2003 के बाद से अब तक लगभग 3 करोड़ मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में जोड़े गए हैं.
बता दें कि चुनाव आयोग ने कहा है कि मतदाता सूची का स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न अंततः सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किया जाएगा. यह प्रक्रिया बिहार से शुरू हुई है, जहां नवंबर से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं. यह प्रक्रिया बुधवार (25 जून) से शुरू हो गई है और 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित होने के साथ समाप्त होगी.
क्या है स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न?
इस प्रक्रिया के तहत बूथ स्तर अधिकारी (बीएलओ) घर-घर जाकर जांच करेंगे. वे मतदाताओं को गणना फॉर्म (एन्यूमरेशन फॉर्म) देंगे, जिसे मौके पर ही भरकर बीएलओ को वापस करना होगा.
चुनाव आयोग ने इस अभियान के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए हैं: अगर कोई घर बंद पाया जाता है, तो बीएलओ फॉर्म को दरवाज़े के नीचे से डाल देगा और कम से कम तीन बार फॉर्म लेने के लिए वापस आएगा.
मतदाता ऑनलाइन भी यह फॉर्म जमा कर सकते हैं, लेकिन इसके बाद बीएलओ द्वारा फिज़िकल वेरिफिकेशन किया जाएगा.
बिहार में करीब 7.73 करोड़ मतदाता हैं. गणना फॉर्म जमा करने की अंतिम तिथि 26 जुलाई है.
ड्राफ्ट मतदाता सूची 1 अगस्त को प्रकाशित की जाएगी. इसके बाद 1 सितंबर तक मतदाता दावे और आपत्तियां दर्ज करा सकेंगे. अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर को जारी होने की संभावना है.
जो लोग निर्धारित समय सीमा तक फॉर्म जमा नहीं करेंगे, उनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए जा सकते हैं, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है. हालांकि, जिन नागरिकों के पास आवश्यक दस्तावेज़ नहीं हैं, उनके लिए सत्यापन प्रक्रिया कैसे की जाएगी, इस पर चुनाव आयोग ने स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए हैं.
गणना फॉर्म में नागरिकता अधिनियम, 1955 के प्रावधानों के अनुसार तीन आयु वर्ग निर्धारित किए गए हैं.
- 1 जुलाई 1987 से पहले भारत में जन्मे व्यक्तियों को अपनी ‘जन्म तिथि और/या जन्म स्थान’ का प्रमाण देना होगा.
- 1 जुलाई 1987 से 12 दिसंबर 2004 के बीच जन्मे व्यक्तियों को अपने प्रमाणों के साथ-साथ कम से कम माता या पिता (दोनों में से किसी एक) का जन्म तिथि और/या जन्म स्थान प्रमाण देना होगा.
- 2 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे व्यक्तियों को अपने साथ-साथ माता-पिता दोनों के जन्म तिथि और/या जन्म स्थान के प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे.
फॉर्म में यह उल्लेख किया गया है, ‘यदि किसी माता या पिता में से कोई भारतीय नागरिक नहीं है, तो आपके जन्म के समय उनके वैध पासपोर्ट और वीज़ा की प्रति प्रदान करें.’
इसके साथ ही, अगर किसी व्यक्ति का नाम 1 जनवरी 2003 या उससे पहले मतदाता सूची में दर्ज है, तो उसे भी प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाएगा, क्योंकि बिहार में पिछली बार स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न 2003 में ही की गई थी.
फॉर्म में विदेश में जन्मे नागरिकों और स्वाभाविक रूप से नागरिकता प्राप्त नागरिकों के लिए भी अलग श्रेणियां दी गई हैं.
हालांकि, जिन बच्चों को छोड़ दिया गया हो या जो अनाथ हैं और जिनके पास माता-पिता के दस्तावेज़ नहीं हैं, उनके मामले में क्या किया जाएगा—इस बारे में चुनाव आयोग ने कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं दिया है.
