नई दिल्ली: जिस तरह चीन दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा है, भारत के लिये नये संकट खड़े हो सकते हैं. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने पाकिस्तान की जो मदद की थी, उसे भारतीय सेना अधिकारी भी रेखांकित कर चुके हैं. 4 जुलाई, 2025 को फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भारतीय सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर सिंह ने कहा था कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान अग्रिम मोर्चे पर था और चीन ने उसे हर संभव समर्थन दिया.
इसी सिलसिले में अब दक्षिण एशिया में एक नए क्षेत्रीय संगठन की स्थापना को लेकर हलचल तेज़ हो रही हैं. पाकिस्तानी अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन और पाकिस्तान मिलकर ऐसा संगठन बना सकते हैं, जो अब लगभग निष्क्रिय हो चुके सार्क (साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन) की जगह ले लेगा. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि यह पहल भारत के लिए कूटनीतिक और रणनीतिक दोनों दृष्टियों से चुनौतीपूर्ण साबित हो सकती है.
पाकिस्तान-चीन बातचीत अंतिम चरण में
रिपोर्ट के मुताबिक, इस्लामाबाद और बीजिंग के बीच इस प्रस्ताव पर बातचीत अंतिम चरण में है. हाल ही में चीन के कुनमिंग शहर में पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश के बीच त्रिपक्षीय बैठक हुई थी. इस बैठक का उद्देश्य दक्षिण एशियाई देशों को इस नए संगठन में शामिल होने का आमंत्रण देना था.
हालांकि, बांग्लादेश ने फिलहाल किसी भी ऐसे गठबंधन की संभावना से इनकार किया है. देश के विदेश मामलों के सलाहकार एम. तौहीद हुसैन ने कहा कि यह एक गैर-राजनीतिक बैठक थी और कोई गठबंधन नहीं बनाया जा रहा.
दक्षिण एशियाई की विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार निरुपमा सुब्रमण्यम को भी कथित नए संगठन के प्रस्ताव की गंभीरता पर संदेह है, वह कहती हैं, ‘मुझे नहीं पता कि यह कोई गंभीर प्रयास है या नहीं. बांग्लादेश इस समूह में शामिल होने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है. यह प्रयास अधिक लगता है कि भारत को यह संदेश दिया जाए कि क्षेत्रीय समूह भारत के बिना और चीन के नेतृत्व में भी बनाए जा सकते हैं.’
भारत को न्योता मिलेगा? शायद नहीं
द वायर के संस्थापक संपादक और वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन के मुताबिक, ‘भारत तभी इस संगठन का हिस्सा बन सकता है जब उसे निमंत्रण मिले, लेकिन अगर वाकई चीन और पाकिस्तान मिलकर यह संगठन बना रहे हैं, तो वे भारत को जानबूझकर बाहर रखना चाहेंगे.’
उनका मानना है कि पिछले एक दशक में भारत की सरकार ने सार्क को प्रोत्साहित करने के बजाय उसे निष्क्रिय ही किया है. ‘भारत सरकार का रवैया इस क्षेत्रीय संगठन के प्रति बहुत नकारात्मक रहा है. अगर आपने खुद ही सार्क को चलने नहीं दिया तो वे आपको किसी नए संगठन में क्यों शामिल करेंगे?’
सुब्रमण्यम भी मानती हैं कि भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी ने सार्क को निष्क्रिय बना दिया. द वायर हिंदी से बातचीत में वह कहती हैं, ‘भारत और पाकिस्तान कभी भी सार्क के भीतर एकमत नहीं हो सके, और जिन समझौतों पर सहमति बनी, उन्हें भी पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका — जैसे कि 2006 में तय हुआ ‘सार्क मुक्त व्यापार क्षेत्र’ (SAFTA). पाकिस्तान ने भारत के साथ व्यापार प्रतिबंध हटाने के लिए आवश्यक कदम उठाने से इनकार कर दिया. हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद की पूरी तरह कभी नहीं रुकी — दोनों के बीच हमेशा कुछ न कुछ संपर्क बना रहा, चाहे वह आधिकारिक हो या बैकचैनल के माध्यम से. इसी वजह से सार्क एक तरह से टुकड़ों में चलता रहा, जिसमें छोटे देश भारत और पाकिस्तान से अलग-अलग संपर्क बनाए रखते थे. इस तरह, सभी देश एक-दूसरे के संपर्क में बने रहे. इन छोटे देशों के लिए भारत के साथ संपर्क और मुक्त व्यापार विशेष रूप से महत्वपूर्ण था.’
सुब्रमण्यम ध्यान दिलाती हैं, ‘मुंबई हमलों के बाद भी सार्क चलता रहा. लेकिन जब 2015 में मोदी की पाकिस्तान के प्रति व्यक्तिगत पहल असफल रही और उसके तुरंत बाद पठानकोट हमला हुआ, तो मोदी को लगा कि पाकिस्तान से कोई भी संपर्क राजनीतिक रूप से एक बड़ा जोखिम है. और जब भारत की पाकिस्तान नीति आतंकवादी हमलों के लिए ‘सज़ा’ देने की हो गई, तो न सिर्फ संवाद बंद कर दिया गया, बल्कि भारत ने क्षेत्र के अन्य देशों से भी ‘वफ़ादारी’ की उम्मीद की. 2016 में इस्लामाबाद में होने वाला सार्क शिखर सम्मेलन रद्द हो गया और उसके बाद से सार्क लगभग निष्क्रिय है.’
वह आगे बताती हैं, ‘भारत ने सभी सार्क देशों से आतंकी हमले की निंदा कराते हुए बयान भी जारी करवाया. लेकिन इन देशों ने पाकिस्तान से संपर्क बनाए रखा. भारत के साथ उनके रिश्ते खराब होने लगे — इसकी वजह यह नहीं थी कि वे चीन से भी संपर्क में थे, बल्कि इसलिए कि भारत चाहता है कि वह किसी भी क्षेत्रीय समूह में ‘केंद्र शक्ति’ के रूप में स्वीकार किया जाए, लेकिन अन्य देश इसे विभिन्न कारणों से स्वीकार नहीं करते. इसके जवाब में BIMSTEC और BBIN जैसे नए समूह शुरू हुए, ताकि पाकिस्तान को अलग किया जा सके. लेकिन इन दोनों के लिए बांग्लादेश की भूमिका महत्वपूर्ण है. और बांग्लादेश में हालिया बदलावों के बाद भारत के पास अब ‘ढाका का सहारा’ भी नहीं बचा. इस तरह, भारत ही दक्षिण एशिया में ‘अलग-थलग’ पड़ गया है.”
भारत-पाक तनाव: किसी भी मंच की अड़चन
भारत और पाकिस्तान का आपसी तनाव केवल सार्क तक सीमित नहीं रहा. शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) जैसे बहुपक्षीय मंच पर भी इस दुश्मनी की छाया दिखती है. वरदराजन कहते हैं, ‘एससीओ में भी पाकिस्तान और भारत दोनों हैं, लेकिन हाल ही में चीन ने एक संयुक्त बयान जारी करने की कोशिश की थी जिसे भारत ने ब्लॉक कर दिया.’
उनका कहना है कि अगर चीन और पाकिस्तान ऐसा संगठन बनाते हैं और उसमें बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल और मालदीव जैसे देश शामिल हो जाते हैं, तो भारत को जरूर चिंता होगी. ‘भूटान को छोड़ दें तो कोई भी दक्षिण एशियाई देश शायद भारत के साथ खड़ा नहीं होगा,’ वे जोड़ते हैं.
सुब्रमण्यम के मुताबिक, प्रस्तावित संगठन के पीछे कोई बड़ा भू-राजनीतिक एजेंडा है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें कितने देश शामिल होते हैं. वह कहती हैं, ‘चीन के पास पहले से ही पाकिस्तान में उन्नत संपर्क परियोजनाएं हैं और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) भी है. वह क्षेत्र के लगभग सभी देशों में निर्माण कार्य कर रहा है और ऋण देता रहा है. इसलिए उसे किसी नए समूह की विशेष ज़रूरत नहीं है. और अगर वाकई कोई वास्तविक क्षेत्रीय समूह बनाने की योजना है, तो वह भारत के बिना सफल नहीं हो सकता — क्योंकि भारत की सीमाएं क्षेत्र के सभी देशों (अफगानिस्तान को छोड़कर) से जुड़ी हैं. और भारत इसमें शामिल नहीं होगा क्योंकि समूह का नेतृत्व चीन करेगा.’
क्या भारत अकेला पड़ जाएगा?
एक और अहम सवाल यह है कि अगर एक नया संगठन उभरता है, तो क्या भारत दक्षिण एशिया में अलग-थलग पड़ जाएगा? वरदराजन का जवाब साफ है: ‘भारत के लिए स्पेस तो पहले ही कम हो चुका है. आपने खुद ही सार्क जैसी संस्था को मरने दिया. और अंग्रेज़ी में एक कहावत है — दुनिया शून्य को नापसंद करती है. उस खालीपन को चीन और पाकिस्तान भरना चाहेंगे.’
वे यह भी कहते हैं कि चीन का क्षेत्र में आर्थिक दबदबा पहले से ही बढ़ रहा है. भारत के साथ-साथ बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल — इन सबके लिए चीन एक बड़ा व्यापारिक साझेदार बन चुका है. और कूटनीति अक्सर आर्थिक रिश्तों के रास्ते चलती है.
‘पाकिस्तान लंबे समय से कहता रहा है कि चीन को सार्क में शामिल किया जाए, लेकिन भारत ने हमेशा मना किया. अब अगर सार्क खत्म हो चुका है, तो चीन इसे रिप्लेस करने की कोशिश करेगा — और कर रहा है.’ वरदराजन जोड़ते हैं.
सार्क क्यों निष्क्रिय हो गया?
सार्क का आखिरी समिट 2014 में हुआ था. 2016 में इस्लामाबाद में प्रस्तावित शिखर सम्मेलन भारत द्वारा बहिष्कृत किए जाने के बाद से यह संगठन स्थगित ही पड़ा है. भारत ने उरी आतंकी हमले के बाद ‘वर्तमान परिस्थितियों’ का हवाला देते हुए सम्मेलन में शामिल होने से इनकार किया था. इसके बाद बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान ने भी सम्मेलन से किनारा कर लिया था.
भारत के पास क्या विकल्प हैं?
वरदराजन कहते हैं कि ‘पिछले एक-डेढ़ दशक में भारत भी अलग-अलग संगठन बना चुका है. जैसे बिम्सटेक (बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड), जिसमें पाकिस्तान को शामिल नहीं किया गया है.’
सुब्रमण्यम का मानना है, ‘भारत को सार्क को पुनर्जीवित करने के लिए गंभीर प्रयास करने चाहिए और पाकिस्तान के साथ किसी न किसी रूप में संवाद — चाहे वह बैकचैनल हो या आधिकारिक — शुरू करना चाहिए, ताकि अगली सार्क बैठक के समय प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान की यात्रा कर सकें. भारत को अपने अन्य सार्क पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को भी बेहतर बनाने के लिए काम करना चाहिए.’
